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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं ?
बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना चाहिए। श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खरपृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं। यह बादरपृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। यह पृथ्वीकायिकों का कथन हुआ । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन करना चाहिए। वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना चाहिए, यावत् जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना चाहिए। यह बादरवनस्पतिकायिक का कथन हुआ । यह वनस्पतिकायिकों का कथन हुआ ।
कायिक जीव क्या हैं ?
वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा गया हैं, वह सम्पूर्ण कथन तब तक करना चाहिए जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। इसके साथ ही देवों का कथन हुआ, इसके साथ ही पंचेन्द्रियों का कथन हुआ और साथ ही सकाय का कथन भी पूरा हुआ।
विवेचन - यहाँ छह प्रकार के संसारसमापन्नक जीव हैं, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों का मन्तव्य बताया गया है । १. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेजस्काय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय और ६. त्रसकाय - इन छह भेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। इस प्रसंग पर वही सब कहा गया हैं जो पहले त्रस और स्थावर की प्रतिपत्ति में कहा गया है। अतएव इनके विषय में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में कही गई वक्तव्यता के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसी सूचना सूत्रकार ने यहाँ प्रदान की है। जिज्ञासु जन वहाँ से विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।
पृथ्वीकायिकों के विषयमें विशेष जानकारी
१०१. कइविहा णं भंते ! पुढवी पण्णत्ता ?
गोयमा ! छव्विहा पुढवी पण्णत्ता, तं जहा - सण्हापुढवी, सुद्धपुढवी, बालुयापुढवी, मणोसिलापुढवी, सक्करापुढवी, खरपुढवी ।
सहा पुढवी णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगं वाससहस्सं ।
सुद्धपुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारसवाससहस्साईं। बालुयापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं चोद्दसवाससहस्साइं । मणोसिलापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सोलसवाससहस्साइं । सक्करापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अट्ठारसवाससहस्साइं । खरपुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसवाससहस्साइं ।