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________________ ३८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवयोनि में निद्रा नहीं होती), ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीडा करती है, कामक्रीडा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फलविपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। __उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं। ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों अथवा श्वेतप्रभा पटल से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन कहे गये हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रों पर छत्र हैं। __वहाँ चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले हैं, उनके नाम हैं-१ अशोक, २ सप्तपर्ण, ३ चंपक और ४ आम्र। वे अपने-अपने वनखण्ड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपनेअपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी पर्षदा का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। १३६.(२) विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए तणसद्दविहूणे जाव देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति। तस्सणंबहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारस जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सव्वजम्बूणदमए णं अच्छे जाव पडिरूवे। से णं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंत्ता संपरिक्खित्ते । पउमवरवेइयाएवण्णओ, वणसंडवण्णओ, जाव विहरंति।से णं वणसंडे देसूणाइंदो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमे परिक्खेवेणं, तस्स णं ओवारियालयणस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ।तेसिंणं तिसोवाणपिडरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तयं तोरणा पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। तस्स णं ओवारियालयणस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिहिं उवसोभिए मणिवण्णओ,गंधरसफासो।तस्सणंबहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते। से णं पासायवडिंसए बावटुिंजोयणाइं अद्धजोयणंच उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसंजोयणाई
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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