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________________ ४१६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र १४१.[६] तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपइट्ठणेहिं जाव अट्ठसएणं सोवण्णयाणं कलसाणं तं चेव जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सव्वोदगेहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया महाया इंदाभिसेएणं अभिसिंचंति।अभिसिंचित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलिं कटु एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जयजय नंदभद्दा ! ते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि,अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं, जितं पालेहि मित्तपक्खं,जियमझे वसाहि तं देव! निरुवसग्गं इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं,धरणो इव नागाणंभरहो इव मणुयाणंबहूणि पलिओवमाइंबहूइंसागरोवमाणि चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं (विजयस्स देवस्स) विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं विजयारायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव आणाईसरं सेणावच्चं करेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्ट महया महया सद्देणं जय जय सदं पउंजंति। [१४१] (६) तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अगमहिषियाँ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, सर्वोदक से, सब मिट्टियों से, सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों से यावत् सौषधियों और सिद्धार्थकों में सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्साहपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं। अभिषेक करके वे सब अलग-अलग सिर पर अंजलि लगाकर इस प्रकार कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! हे भद्र ! आपकी जय विजय हो ! हे नन्द ! हे भद्र ! आपकी जय-विजय हो। आप नहीं जीते हुओं को जीतिये, जीते हुओं का पालन कीजिये, अजित शत्रु पक्ष को जीतिये और विजितों का पालन कीजिये, हे देव ! जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों ! बहुत से पल्योपम और बहुत से सागरोपम तक चार हजार सामानिक देवों का, यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं-जय-जयकार करते हैं। १४२. [१] तएं णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणा सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, सीहासणाओ अब्भुट्टित्ताअभिसेयसभाओ पुरथिमेणंदारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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