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द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसक निरूपण]
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. उनसे स्थलचर संख्येयगुण, उनसे जलचर संख्येयगुण, उनसे वानव्यन्तर देव संख्येयगुण हैं । क्योंकि वानव्यन्तर देव एक प्रतर में संख्येय योजन कोटि प्रमाण एक प्रादेशिक श्रेणी के बराबर जित्ने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। उनसे ज्योतिष्क देव संख्यातगुण हैं। युक्ति पहले कही जा चुकी है। पुरुषवेद की स्थिति
५७. पुरिसवेदस्स णं भंते ! केवइयं कालं बंधट्टिई पण्णत्ता ?
गोयमा! जहन्नेणं अट्ठसंवच्छराणि उक्कोसेणं दससागरोवमकोडाकोडीओ।दसवाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेओ।
पुरिसवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! वणदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते । से त्तं पुरिसा। [५७] हे भगवन् ! पुरुषवेद की कितने काल की बंधस्थिति है ?
गौतम ! जघन्य आठ वर्ष और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति है। एक हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से रहित स्थिति कर्मनिषेक है (उदययोग्य है)।
भगवन् ! पुरुषवेद किस प्रकार का कहा गया हैं ? गौतम ! वन की अग्निज्वाला के समान है। यह पुरुष का अधिकार पूरा हुआ।
विवेचन-पुरुषवेद की जघन्य स्थिति आठ वर्ष की है क्योंकि इससे कम स्थिति के पुरुषवेद के बंध के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते। उत्कर्ष से उस की स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है।
स्थिति दो प्रकार की कही गई है-(१) कर्मरूप से रहने वाली और (२) अनुभव में आने वाली। यहां जो स्थिति कही गई है वह कर्म-अवस्थान रूप है। अनुभवयोग्य जो स्थिति होती है वह अबाधाकाल से रहित होती है। अबाधाकाल पूरा हुए बिना कोई भी कर्म अपना फल नहीं दे सकता। अबाधाकाल का प्रमाण यह बताया है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की होती है उसकी अबाधा उतने ही सौ वर्ष की होती है। पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की हैं, अतः उसकी अबाधा दस सौ (एक हजार) वर्ष होती है। अबाधाकाल से रहित स्थिति ही अनुभवयोग्य होती है-यह कर्मनिषेक है अर्थात् कर्मदलिकों की उदयावलिका में आने की रचनाविशेष है।
· पुरुषवेद को दावाग्नि-ज्वाला समान कहा है अर्थात् वह प्रारम्भ में तीव्र कामाग्नि वाला होता है और शीघ्र शान्त भी हो जाता है। नपुंसक निरूपण
५८. से किं तं णपुंसका?
णपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–नेरइय-नपुंसका, तिरिक्खजोणिय-नपुंसका, मणुस्सजोणिय-नपुंसका।