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________________ ४४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवरवेदिकाएँ और वनखण्ड हैं। उन कांचन पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियाँ बैठती हैं आदि। उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादावतंसक कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं। इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएँ हैं और सिंहासंन हैं। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिकदेव, अग्रमहिषियाँ आदि परिवार के भद्रासनों से युक्त हैं। हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? ____ गौतम ! इन कांचनपर्वतों की वाबडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महर्द्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं। इसलिए वे कांचनपर्वत कहे जाते हैं। इन कांचनक देवों की कांचनिका राजधानियां इन कांचनक पर्वतों से उत्तर में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में कही गई हैं आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् उत्तरकुरु क्षेत्र का उत्तरकुरुद्रह कहाँ कहा गया है ? गौतम् ! नीलवंतद्रह के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और / योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है, आदि सब वर्णन नीलवंतद्रह की तरह जानना चाहिए। सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं। सब द्रहों के पूर्व में और पश्चिम में दस-दस कांचनक पर्वत हैं जिनका प्रमाण समान है। इनकी राजधानियाँ उत्तर की ओर असंख्य द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में हैं, उनका वर्णन विजया राजधानी की तरह जानना चाहिए। इसी प्रकार चन्द्रद्रह, एरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी यही सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। जंबूवृक्ष वक्तव्यता १५१. कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जंबु-सुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, गंधमादणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं सीताए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थणं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे नामं पेढे पंचजोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं पण्णरस एक्कासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभागे बारस जोयणाई बाहल्लेणं तयाणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए सव्वेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते, सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे। __से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण यवणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ दोण्हवि। तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तं चेव जाव तोरणा जाव छत्ताइछत्ता।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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