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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
सह, ५. तेयालीस (तेजस्वी) और ६. शनैश्चारी।
विवेचन-उत्तरकुरु क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ (चौड़ा) है। अतः महाविदेह क्षेत्र का जो विस्तार है उसमें से मेरुपर्वत के विस्तार को कम कर देने से जीवा का विस्तार बनता है। उसे आधा करने पर जो प्रमाण आता है वह दक्षिणकुरु और उत्तरकुरु का विस्तार होता
महाविदेह क्षेत्र का विस्तार ३३६८४ १. योजन है। इसमें मेरु का विस्तार १०००० योजन घटा देना चाहिए, तब २३६८४. बनते हैं। इसके दो भाग करने पर ११८४२२।.योजन होता है। यही उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु का विस्तार है। इसकी जीवा (प्रत्यंचा) उत्तर में नील वर्षधर पर्वत के समीप तक विस्तृत है और पूर्व पश्चिम तक लम्बी है। यह अपने पूर्व दिशा के छोर से माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत को छूती है
और पश्चिम दिशा के छोर से गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत को छूती है। यह जीवा ५३००० (तिस्पन हजार) योजन लम्बी है। इसकी लम्बाई का प्रमाण इस प्रकार फलित होता है २–मेरुपर्वत की पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा के भद्रशाल वनों की प्रत्येक की लम्बाई २२००० (बावीस हजार) योजन की है, दोनों की ४४००० योजन हुई इसमें मेरुपर्वत के विष्कंभ १०००० (दसहजार) योजन मिला देने से ५४००० (चौपन हजार) योजन होते हैं । इस प्रमाण में से दोनों वक्षस्कार पर्वतों का ५००-५०० योजन का प्रमाण घटा देने से तिरपन हजार योजन आते हैं। यही प्रमाण जीवा का है।
उत्तरकुरुओं का धनुष्पृष्ठ दक्षिण में ६०४१८ १२). योजन है। गन्धमादन और माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वतों की लम्बाई का जो परिमाण है वही उत्तरकुरुओं का धनुपृष्ठ (परिधि) है। गंधमादन और माल्यवंत पर्वत का प्रत्येक का आयाम ३०२०९ ६.योजन है। दोनों का कुल प्रमाण ६०४१८ १२/..योजन होता है। यही प्रमाण उत्तरकुरुओं के धनुष्पृष्ठ का है।
उत्तरकुरु क्षेत्र के स्वरूप के विषय में प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप की वक्तव्यता का अतिदेश किया है। अर्थात् पूर्वोक्त एकोरुक द्वीप के समान ही सब वक्तव्यता जाननी चाहिए। जो अन्तर है उसे सूत्रकार में साक्षात् सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है
___ वे उत्तरकुरु के मनुष्य छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस के लम्बे हैं, २५६ उनके पसलियाँ होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है, पल्योपमासंख्येय भाग कम (देशोन) तीन पल्योपम
'वइदेहा विक्खंभा मंदरविक्खंभ सोहियअद्धतं कुरुविक्खंभ जाणसु'। २. 'मंदरपुव्वेणायया वीससहस्स भद्दसालवणं दुगुणं मंदरसहियं दुसेलसहियं य कुरुजीवा।' ३. 'आयामो सेलाणं दोण्हवि मिलिओ कुरुणधण पुटुं।' ४. वृत्तिकार ने उत्तरकुरु के आकार-भाव-प्रत्यावतार की मूल पाठ सहित विस्तृत व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता हैं कि उनके सामने जो
मूलप्रतियां रही हैं उनमें मूलपाठ में ही पूरा वर्णन होना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में अतिदेश वाला पाठ है। सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप का जहाँ वर्णन किया है वहाँ वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या न करते हुए केवल यह लिखा है कि उत्तरकुरु वाली व्याख्या समझ लेनी चाहिए। यहाँ विचारणीय यह है कि आगे आने वाले विषय का पहले अतिदेश क्यों किया है वृत्तिकार ने?