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________________ ततीय प्रतिपत्ति: उद्देशकार्थसंग्रहणिगाथाएँ] [२५७ . प्रस्तुत सूत्र में 'पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए' पाठ है। इससे सामान्यतया पृथ्वीकयिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रहण होता है। यहाँ रत्नप्रभादि में तत् तत् रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में पृच्छा है। बादर तेजस्कायिक के रूप में जीव इन नरकपृथ्वियों में उत्पन्न नहीं होते अतएव उनको छोड़कर शेष के विषय में यह समझना चाहिए। वृत्तिकार ने ऐसा ही उल्लेख किया है। ' अतएव मूलार्थ में ऐसा ही अर्थ किया है। दूसरा प्रश्न यह कि क्या वे रत्नप्रभादि के पर्यन्तवर्ती पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआस्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? भगवान् ने कहा-हाँ गौतम ! वे महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं। प्रस्तुत प्रश्न का उद्भव इस शंका से होता है कि वे जीव अभी एकेन्द्रिय अवस्था में हैं। अभी वे इस स्थिति में नहीं हैं और न ऐसे साधन उनके पास हैं जिनसे वे महा पापकर्म और महारम्भ आदि कर सकें तो वे महाकर्म, महाक्रिया, महाआस्रव और महावेदना वाले कैसे हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि उन जीवों ने पूर्वजन्म में जो प्राणातिपात आदि महाक्रिया की है उसके अध्यवसायों से वे निवृत्त नहीं हुए हैं। अतएव वे वर्तमान में भी महाक्रिया वाले हैं। महाक्रिया का हेतु महाआस्रव है। वह महाआस्रव भी पूर्वजन्म में उनके था इससे वे निवृत्त नहीं हुए अतएव महाआस्रव भी उनके मौजूद है। महाआस्रव और महाक्रिया के कारण असातावेदनीयकर्म उनके प्रचुरमात्रा में है, अतएव वे महाकर्म वाले हैं और इसी कारण वे महावेदना वाले भी है। उद्देशकार्थसंग्रहणी गाथाएँ ९४. पुढविं ओगाहित्ता नरगा संठाणमेव बाहल्लं। विक्खंभपरिक्खेवे वण्णो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उवमा देवेण होइ कायव्या। जीवा य पोग्गला वक्कमति तह सासया निरया॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं। संठाण वण्ण गंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥ लेसा दिट्ठी नाणे जोगुवओगे ता समुग्धाया । तत्तो खुहा पिवासा विउव्वणा वेयणा य भए ॥४॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाए दुविहाए। उव्वट्टण पुढवी उ उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ। ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो॥ : १. 'पृथ्वीकायिकतया अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वाः? भगवानाह-हंतेत्यादि।-मलयवृत्ति
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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