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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] निवृत्तिरूप व्यापार, जिस संज्ञा द्वारा होता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। इसी संज्ञा को लेकर संज्ञी - असंज्ञी का विभाग आगम में किया गया है। यह संज्ञा देव, नारक और गर्भज तिर्यंच मनुष्यों को होती है । [४१ हेतुवादोपेदशिकी - देहनिर्वाह हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति के लिए उपयोगी केवल वर्तमानकालिक विचार ही जिस संज्ञा से हो, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है । यह संज्ञा द्वीन्द्रियादि में भी पाई जाती है। केवल एकेन्द्रियों में नहीं पाई जाती । दृष्टिवादोपदेशिकी - यहाँ दृष्टि से मतलब सम्यग्दर्शन से है। इसकी अपेक्षा से क्षायोपशमिक आदि सम्यक्त्व वाले जीव ही संज्ञी हैं। मिथ्यात्वी असंज्ञी हैं । उक्त तीन प्रकार की संज्ञाओं में से दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा से ही संज्ञी - असंज्ञी का व्यवहार समझना चाहिए । यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारादि दस प्रकार की संज्ञाएँ आगम में कही गई हैं तो उन्हें संज्ञी क्यों न माना जाय ? उसका समाधान दिया गया है कि एकेन्द्रियों में यद्यपि उक्त दस प्रकार की संज्ञाएँ अवश्य होती हैं तथापि वे अति अल्पमात्रा में होने से तथा मोहादिजन्य होने से अशोभन होती हैं अतएव उनकी गणना 'संज्ञी में नहीं की जाती है । जैसे किसी व्यक्ति के पास दो चार पैसे हों तो उसे पैसेवाला नहीं कहा जाता । इसी तरह कुरूप व्यक्ति में रूप होने पर भी उसे रूपवान नहीं कहा जाता। यही बात यहाँ भी समझ लेनी चाहिए । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दीर्घकालिक संज्ञा नहीं होती है, अतएव वे संज्ञी नहीं हैं। असंज्ञी ही हैं । ११. वेदद्वार - स्त्री की पुरुष में, पुरुष की स्त्री में, नपुंसक की दोनों में अभिलाषा होना वेद है । वेद तीन हैं - १. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद और ३. नपुंसकवेद । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नपुंसकवेद वाले हैं। इनका सम्मूर्छिम जन्म होता है। नारक और सम्मूर्छिम नपुंसकवेदी ही होते हैं । १ १२. पर्याप्तिद्वार - सूत्रक्रमांक १२ के विवेचन में पर्याप्ति- अपर्याप्ति का विवेचन कर दिया है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ और ये चार ही अपर्याप्तियाँ पाई जाती है। ये चारों अपर्याप्तियाँ करण की अपेक्षा से समझना चाहिए। लब्धि की अपेक्षा से तो एक ही प्राणापान अपर्याप्ति समझनी चाहिए। क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक भी नियम से आहार, शरीर, इन्द्रिय पर्याप्ति तो पूर्ण करते १. नारकसंमूर्छिमा नपुंसका - इति भगवद्वचनम् ।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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