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इत्यादि प्रतीति में जो 'मैं' है वही आत्मा की प्रत्यक्षता का प्रमाण है। यह 'अहं प्रत्यय' ही आत्मा के अस्तित्व का सूचक है।
आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि उसका ज्ञानगुण स्वसंवेदन - सिद्ध है । घटपटादि भी उनके गुण-रूप आदि का प्रत्यक्ष होने से ही प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। इसी तरह आत्मा के ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होने से आत्मा भी प्रत्यक्ष - सिद्ध होती है।
आत्मा का अस्तित्व है क्योंकि उसका असाधारण गुण चैतन्य देखा जाता है। जिसका असाधारण गुण देखा जाता है उसका अस्तित्व अवश्य होता है जैसे चक्षु । चक्षु सूक्ष्म होने से साक्षात् दिखाई नहीं देती लेकिन अन्य इन्द्रियों से न होने वाले रूप विज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति से उसका अनुमान होता है। इसी तरह आत्मा का भी भूतों में न पाये जाने वाले चैतन्यगुण को देखकर अनुमान किया जाता है।
भगवती सूत्र में कहा गया है कि- 'गौतम ! जीव नहीं होता तो कौन उत्थान करता ? कौन कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम करता ? यह कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम जीव की सत्ता का प्रदर्शन है। कौन ज्ञानपूर्वक क्रिया में प्रवृत्त होता ? ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति और निवृत्ति भी जीव की सत्ता का प्रदर्शन है।
पुद्गल के कार्यों को बताने वाला भगवती सूत्र का पाठ भी बहुत मननीय है। ' वहां कहा गया है - गौतम ! पुद्गल नहीं होता तो शरीर किससे बनता ? विभूतियों का निमित्त कौन होता ? वैक्रिय शरीर किससे बनता ? कौन तेज, पाचन और दीपन करता ? सुख-दुःख की अनुभूति और व्यामोह का साधन कौन बनता ? शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और इनके द्वार कान, आँख, नाक, , जीभ और चर्म कैसे बनते ? मन, वाणी और स्पन्दन का निमित्त कौन श्वास और उच्छ्वास किसका होता ? अन्धकार और प्रकाश नहीं होते, आहार और विहार नहीं होते धूप और छांह नहीं होती। कौन छोटा होता, कौन बड़ा होता ? कौन लम्बा होता, कौन चौड़ा ? त्रिकोण और चतुष्कोण नहीं होते । वर्तुल और परिमंडल भी नहीं होते। संयोग और वियोग नहीं होते ? सुख और दुःख, जीवन और मरण नहीं होते। यह विश्व अदृश्य ही होता ?"
बनता
भक्तीसूत्र के उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभावदशापन्न संसारी आत्मा कर्मपुद्गलों के साथ क्षीर-नीर की तरह सम्बद्ध है। आत्मा और शरीर का गाढ़ सम्बन्ध हो रहा है। इस संयोग से ही विविध प्रवृत्तियां होती हैं। आहार, श्वासोच्छ्वास, इन्द्रियां, भाषा और मन -ये न आत्मा के धर्म हैं और न पुद्गल के । ये संयोगज हैं - आत्मा और शरीर दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। भूख न आत्मा को लगती है और न आत्मरहित शरीर को । भोगोपभोग की इच्छा न आत्मा में होती है न आत्मरहित शरीर में आत्मा और शरीर का योग ही सांसारिक जीवन है ।
कर्मों के विविध परिणामों के फलस्वरूप संसारापन्न जीव विभिन्न स्वरूपों को प्राप्त करता है। वह कभी स्थावर रूप में जन्म लेता है, कभी त्रसरूप में। कभी वह एकेन्द्रिय बनता है, कभी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कभी पंचेन्द्रिय बनता है। कभी वह स्त्री रूप में जन्म लेता है, कभी पुरुषरूप में तो कभी नपुंसकरूप में। कभी वह नरक में उत्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेता है, कभी मनुष्य बनता है तो कभी देवलोक में पैदा होता । चौरासी लाख जीवयोनियों और कुलकोडियों में वह जन्म-मरण करता है और विविध परिस्थितियों
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भगवती शतक १३ उ. ४, सू. २ – १० ।
भगवती शतक १३ उ. ४ ।
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