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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
की अति बहुलता है और द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं। उनसे देवस्त्रियां असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान की देवियां प्रत्येक असंख्येय श्रेणी के आकाश-प्रदेशप्रमाण हैं। यह प्रथम अल्पबहुत्व हुआ।
(२) दूसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की तिर्यंचस्त्रियों की अपेक्षा से है। सबसे थोड़ी खेचर तिर्यक्योनि की स्त्रियां, उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्येयगुण हैं क्योंकि खेचरों से स्थलचर स्वभाव से प्रचुर प्रमाण में हैं। उनसे जलचरस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, क्योंकि लवणसमुद्र में, कालोद में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों की अति प्रचुरता है और स्वयंभूरमणसमुद्र अन्य समस्त द्वीप-समुद्रों से अति विशाल है।
(३) तीसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की मनुष्यस्त्रियों को लेकर है। सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि वह क्षेत्र छोटा है। उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की स्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र संख्येयगुण है। स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं, क्योंकि दोनों का क्षेत्र समान प्रमाण वाला है। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुणी हैं, क्योंकि देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र की अपेक्षा हरिवर्ष रम्यकवर्ष का क्षेत्र बहुत अधिक है। स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं, क्योंकि क्षेत्र समान है। उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की अल्पता होने पर भी अल्प स्थिति वाली होने से वहां उनकी बहुलता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों में समानता है। उनसे भरत और ऐरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि कर्मभूमि होने से स्वभावतः उनकी वहाँ प्रचुरता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों की समान रचना है। उनसे पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की बहुलता होने से अजितनाथ तीर्थंकर के काल के समान स्वभावतः वहाँ उनकी बहुलता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, समान क्षेत्ररचना होने से।
(४) चौथा अल्पबहुत्व चार प्रकार की देवियों को लेकर हैं, सबसे थोड़ी वैमानिक देवस्त्रियां हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो द्वितीय वर्गमूल है उसे तृतीय वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश हैं, उनका बत्तीसवां भाग कम कर देने पर जो राशि आवे उतने प्रमाण की सौधर्मदेवलोक की देवियां हैं और उतनी ही ईशानदेवलोक की देवियां हैं।
वैमानिकदेवियों से भवनवासीदेवियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो प्रथम वर्गमूल है उसको द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों के जितने प्रदेश हैं उनका बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि होती है उतनी भवनवासीदेविया हैं।
भवनवासीदेवियों से व्यन्तरदेवियां असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि एक प्रतर में संख्येय योजन प्रमाण वाले एक प्रादेशिक श्रेणी प्रमाण जितने खण्ड हों, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो शेष राशि रहती है, उतने प्रमाण की व्यन्तरदेवियां हैं।
व्यन्तरदेवियों से ज्योतिष्कदेवियां संख्येयगुण हैं। क्योंकि २५६ अंगुल प्रमाण के जितने खण्ड एक