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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
उ.-गौतम! अनन्तर-अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, परम्परावगाढ का नहीं।
प्र.-भंते ! वे अणु-थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं या बादर-अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! वे थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं और अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
प्र.-भंते! क्या वे ऊपर, नीचे या तिर्यक् स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! वे ऊपर स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, नीचे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं और तिरछे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
प्र.-भंते! क्या वे आदि, मध्य और अन्त में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! वे आदि में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, मध्य में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं और अन्त में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
प्र.-भंते ! क्या वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं या अपने अयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं, अयोग्य पुद्गलों का नहीं।
प्र.-भंते! क्या वे आनुपूर्वी-समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनानुपूर्वी-दूरस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! वे समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं, दूरस्थ पुद्गलों का आहार नहीं करते।
प्र.-भंते! क्या वे तीन दिशाओं, चार दिशाओं, पाँच दिशाओं और छह दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उ.-गौतम! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। व्याघात हो तो तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं और कभी पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं।
प्रायः विशेष करके वे जीव कृष्ण, नील यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। गन्ध से सुरभिगंध दुरभिगंध वाले, रस से तिक्त यावत् मधुररस वाले, स्पर्श से कर्कश-मृदु यावत् स्निग्ध-रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं।
वे उन आहार्यमाण पुद्गलों के पुराने (पहले के) वर्णगुणों को यावत् स्पर्शगुणों को बदलकर, हटाकर, झटककर, विध्वंसकर उनमें दूसरे अपूर्व वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुणों को उत्पन्न करके आत्मशरीरावगाढ पुद्गलों को सब आत्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं।
१९. ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववजंति ?