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में रूप जीव और अजीव के भेद और प्रभेदों की चर्चा है। परम्परा की दृष्टि से प्रस्तुत आगम में २० उद्देशक थे और बीसवें उद्देशक की व्याख्या श्री शालिभद्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि ने की थी। श्री अभयदेव ने इसके तृतीय पद पर संग्रहणी लिखी थी। परन्तु वर्तमान में जो इसका स्वरूप है उसमें केवल नौ प्रतिपत्तियां (प्रकरण) हैं जो २७२ सूत्रों में विभक्त हैं। संभव है इस आगम का महत्त्वपूर्ण भाग लुप्त हो जाने से शेष बचे हुए भाग को नौ प्रतिपत्तियों के रूप में संकलित कर दिया गया हो। उपलब्ध संस्करण में ९ प्रतिपत्तियां, एक अध्ययन, १८ उद्देशक, ४७५० श्लोक प्रमाण पाठ है। २७२ गद्यसूत्र और ८१ पद्य (गाथाएँ) हैं। प्रसिद्ध वृत्तिकार श्री मलयगिरि ने इस पर वृत्ति लिखी है। उन्होंने अपनी वृत्ति में अनेक स्थलों पर वाचनाभेद का उल्लेख किया है। आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित जीवाभिगम के संस्करण में जो मूल पाठ दिया गया है उसकी पाण्डुलिपि से वृत्तिकार के सामने रही हुई पाण्डुलिपि में स्थान-स्थान पर भेद है, जिसका उल्लेख स्वयं वृत्तिकार ने विभिन्न स्थानों पर किया है। प्रस्तुत संस्करण के विवेचन और टिप्पण में ऐसे पाठभेदों का स्थान-स्थान पर उल्लेख करने का प्रयत्न किया गया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि शाब्दिक भेद होते हुए भी प्रायः तात्पर्य में भेद नहीं है।
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय यह है कि नन्दीसूत्र आदि श्रुतग्रन्थों में श्रुतसाहित्य का जो विवरण दिया गया है तदनुरूप श्रुतसाहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। उसमें उल्लिखित विशाल श्रुतसाहित्य में से बहुत कुछ तो लुप्त हो गया और बहुत-सा परिवर्तित भी हो गया। भगवान् महावीर के समय जो श्रुत का स्वरूप और परिमाण था वह धीरे धीरे दुर्भिक्ष आदि के कारण तथा कालदोष से एवं प्रज्ञा-प्रतिभा की क्षीणता से घटता चला गया। समय समय पर शेष रहे हुए श्रुत की रक्षा हेतु आगमों की वाचनाएं हुई हैं। उनका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाना अप्रासंगिक नहीं होगा। वाचनाएँ
श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् आगम-संकलन हेतु पांच वाचनाएँ हुई हैं।
प्रथम वाचना-वीरनिर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ने के कारण श्रमणसंघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक बहुश्रुतधर श्रमण क्रूर काल के गाल में समा गये। अनेक अन्य विघ्नबाधाओं ने भी यथावस्थित सूत्रपरावर्तन में बाधाएँ उपस्थित कीं। आगम ज्ञान की कड़ियां-लड़ियां विशृंखलित हो गईं। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर विशिष्ट आचार्य, जो उस समय विद्यमान थे, पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया। बारहवें दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना से उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। मुनि स्थूलभद्र ने दस पूर्व तक अर्थसहित वाचना ग्रहण की। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी तभी स्थूलभद्र मुनि ने सिंह का रूप बनाकर बहिनों को चमत्कार दिखलाया । जिसके कारण भद्रबाहु ने आगे वाचना देना बंद कर दिया। तत्पश्चात् संघ एवं स्थूलभद्र के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर भद्रबाहु ने मूलरूप से अन्तिम चार पूर्वो की वाचना दी, अर्थ की दृष्टि से नहीं। शाब्दिक दृष्टि से स्थूलभद्र चौदह पूर्वी हुए किन्तु अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी ही रहे। ३ १. इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु, यथावस्थितषाचनाभेदप्रतिपत्त्यर्थ गलितसूत्रोद्धारणार्थ चैव ।
सुगमत्यपि बिवियन्ते। जीवा. वृत्ति ३,३७६ तेण चिंतियं भगिणीणं इडिंढ दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वइ।-आवश्य. वृत्ति तित्थोगालिय पइण्णय ७४२।। आवश्यकचूर्णि पृ. १८७ परिशिष्ट पर्व सर्ग १.
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