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________________ तृतीय प्रतिपत्ति :मण्यंग नामक कल्पवृक्ष] [२९९ जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिणिरुवहत दुद्धरद्धे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमण्णे होज्ज उत्तमवण्णगंधमंते, रणो जहा वा चक्कवट्टिस्स, होज्ज निउणेहि सूयपुरिसेहिं सज्जिएहिं वाउकप्पसेअसित्ते इव ओदणे कलमसालि णिव्यत्तिए विपक्के सवप्फमिउविसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्ण दव्वुवक्खडेसु सक्कए वण्णगंधरसफरिसजुत्त बलवीरिय परिणामे इंदियबलपुट्टिवद्धणेखुप्पिवासमहणे पहाण-कुथियगुलखंडमच्छंडिघय-उवणीए पमोयगे सण्हसमियगब्भे हवेज्ज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा विदुमगणाअणेग बहुविविहवीससापरिणयाए भोयणविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥७॥ । [१११] (९) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्णगंध वाला परमान्न (पायस-खीर या दूधपाक) निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों (रसोइयों) द्वारा निष्पादित चार उकालों से (कल्पों से) सिका हुआ, कलम जाति के ओदन जिनका एक-एक दाना वाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, इलायची आदि भरपूर सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से चासनी रूप बनाये हुए गुड, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान्न (कल्याण भोजन) होता है, उस प्रकार की (भोजन विधि सामग्री) से युक्त वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं। उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है। वे वृक्ष कुश-काश आदि से रहित मूल वाले और श्री से अतीव सुशोभित होते हैं ॥७॥ मण्यंग नामक कल्पवृक्ष _[१०] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से हारद्धहार वट्टणग मउड-कुंडलवामुत्तगहेमजाल मणिजाल कणगजालग-सुत्तग उच्चिइय कटगा खुडिय एकावलि कंठसुत्त मकरिय उरत्थगेवेज्ज सोणि सुत्तग चूलामणि कणग तिलगफुल्लसिद्धत्थय कण्णवालि ससिसूर उसभ चक्कग तलभंग हुडिय हत्थमालग वलक्ख दीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूर वलयपालंब अंगुलेज्जग कंची मेहला कलाव फ्यरगपायजालघंटिय खिंखिणि रयणोरजालस्थिमियवरणेउरचलणमालिया कणगनिगरमालिया कंचनमणि रयण भत्तिचित्ता भूसणविधी बहुपगारा तहेव ते मणियंगा विदुमगणाअणेगबहुविविह वीससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥८॥ [१११] (१०) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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