SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र है। वनस्पतिकायिकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल - यावत् असंख्येयलोक। शेष रहे द्वीन्द्रिय यावत् खेचर नपुंसकों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिका ल 1 मनुष्य नपुंसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्ष जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। धर्मार की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त । इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का, भरत - एरवत - पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह मनुष्य नपुंसक का भी कहना चाहिए । भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर कितने काल का होता है ? गौतम ! जन्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल, इस प्रकार अन्तद्वीपिक नपुंसक तक का अन्तर कहना चाहिए । विवेचन - नपुंसकों की भवस्थिति और कायस्थिति बताने के पश्चात् इस सूत्र में उनका अन्तर बताया गया है। अर्थात् नपुंसक, नपुंसकपर्याय को छोड़ने पर पुन: कितने काल के पश्चात् नपुंसक होता है। सामान्यतः नपुंसक का अन्तर बताते हुए भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर होता है। क्योंकि व्यवधान रूप पुरुषत्व और स्त्रीत्व का कालमान इतना ही होता है। जैसा कि संग्रहणीगाथाओं में कहा है - स्त्री और नपुंसक की संचिट्ठणा (कायस्थिति) और पुरुष का अन्तर जघन्य से एक समय है तथा पुरुष की संचिट्ठणा और नपुंसक का अंतर उत्कर्ष से सागरपृथक्त्व- (पदैकदेशे पदसमुदायोपचार से) सागरोपमशतपृथक्त्व है । ' सामान्य विवक्षा में नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सप्तमनारकपृथ्वी से निकलकर तन्दुलमत्स्यादि भव में अन्तर्मुहूर्त तक रह कर पुनः सप्तमपृथ्वीनारक में जाने की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है । उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है । यह नरकभव से निकलकर परम्परा से निगोद में अनन्तकाल रहने की अपेक्षा से समझना चाहिए । इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वी के नपुसंकों का अन्तर समझ लेना चाहिए। सामान्य विवक्षा में तिर्यक्योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से सागरोपमशतपृथक्त्व है। पूर्ववत् स्पष्टीकरण जानना चाहिए । विशेष विवक्षा में सामान्यतः एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (क्योंकि द्वीन्द्रियादिकाल का व्यवधान इतना ही है) और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है, क्योंकि व्यवधान रूप त्रसकाय की इतनी ही कालस्थिति है । इतने व्यवधान के बाद पुनः एकेन्द्रिय होता ही है । १. इत्थिनपुंसा संचिट्ठणेसु पुरिसंतरे य समओ उ । पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे साहुतं ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy