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श्रीआदिनाथ-चरित
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भक्ति-पुरस्सर वंदनाकर कहा:-"महाराज ! हमने इतनी देरतक आपके धर्म-ध्यानमें बाधा डाली इसके लिए हमें क्षमा कीजिए।"
कुछ कालके बाद उन्हें वैगग्य उत्पन्न हुआ । जीवानंदने अपने पाँचों मित्रों सहित दीक्षा ले ली। अनेक प्रकारसे जीवोंकी रक्षा करते और संयम पालते हुए वे तपश्चरण करने लगे। अन्त समयमें उन्होंने संलेखना करके अनशनव्रत ग्रहण किया और आयु समाप्त होनेपर उस देहका परित्याग किया। ___ दसवाँ भव-धनका जीव जीवानंद नामसे ख्यात शरीरको छोड़कर अपने छहों मित्रों सहित, बारहवें देवलोकमें इन्द्रका सामानिक देव हुआ। यहाँ बाईस सागरका आयु पूर्ण किया। ___ ग्यारहवाँ भव-वहाँसे च्यवकर धनसेठका (जीवानंदका) जीव जंबूद्वीपके पूर्व विदेहमें, पुष्कलावती विजयमें, लवण समुद्रके पास, पुंडरीकिनी नामक नगरके राजा वज्रसेनके घर, उसकी धारणी नामा रानीकी कूखसे, जन्मा । नाम वज्रनाभ रक्खा गया। जब ये गर्भ में आये थे तब इनकी माताको चौदह महा स्वप्न आये थे । जीवानंदके भवमें इनके जो मित्र थे वे भी पाँच तो इनके सहोदर भाई हुए और केशवका जीव दूसरे राजाके यहाँ जन्मा ।
जब ये वयस्क हुए तब इनके पिता 'वज्रसेन' राजाने दीक्षा ग्रहण कर ली । ये स्वयंबुद्ध भगवान थे।
वज्रनाभ चक्रवर्ती थे । जब इनके पिताको केवलज्ञान हुआ तभी इनकी आयुधशालामें भी चक्ररत्नने प्रवेश किया ।
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