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(10) माता-पिता एवं परिजन - मनुष्य के पास एक सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था के रूप में परिवार संस्था (Family Institution) है, जो पशु-पक्षियों के पास नहीं है। मनुष्य को जन्म के साथ ही माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि का आश्रय, प्रेम, सहयोग, सुरक्षा एवं सेवा की प्राप्ति हो जाती है। इससे जीवन के विविध आयामों के विकास की प्रेरणा बार-बार मिलती है। स्थानांगसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि माता-पिता आदि के उपकारों का बदला नहीं चुकाया जा सकता। (11) सामाजिक संगठन - मनुष्य के पास अड़ोसी-पड़ोसी, मित्र, कुटुम्बी, नौकर-चाकर, सरकार, प्रशासन, चिकित्सक, अधिवक्ता, अभियन्ता, व्यापारी आदि अनेक सहयोगी होते हैं, जिनके अनुभव, ज्ञान, विचार, सलाह आदि उसे प्राप्त होते रहते हैं। इनका भी जीवन-प्रबन्धन हेतु विशिष्ट लाभ समय-समय पर मिलता रहता है। (12) आजीविका के साधन - मनुष्य के पास सामान्यतया जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन-सम्पत्ति आदि की व्यवस्था होती है, जिससे वह निश्चिन्त होकर जीवन-प्रबन्धन का प्रयास कर सके। (13) नैतिकता के साधन - मनुष्य के पास परमात्मा या उनकी प्रतिमा, गुरू एवं शास्त्र उपलब्ध होते हैं, जिनका उपयोग करके वह नैतिक मूल्यों का विकास कर सके। यह योग्यता सुलभता से नारक, तिर्यंच और देव को नहीं मिलती। (14) आध्यात्मिक विकास के साधन – मनुष्य के पास अंतरंग में मति एवं श्रुत ज्ञान की योग्यता होती है, जिनका सम्यक् उपयोग करके वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य आदि की सम्यक् साधना कर मोक्ष या मुक्त अवस्था की प्राप्ति कर सकता है, जो जीवन-प्रबन्धन का परम साध्य है। यह योग्यता मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी प्राणी में नहीं होती। (15) परिवर्तन-क्षमता - मनुष्य के पास अपनी प्रकृति (आदत/संस्कार) को परिवर्तित करने की अद्भुत योग्यता है। पाश्चात्य मानवतावादी विचारकों ने मनुष्य में तीन विशिष्ट योग्यताएँ बताई हैं - विवेकशक्ति (Rationality), सजगता (Awareness) तथा संयम (Self control or Temperence), जो इस बात को धोतित करती हैं कि मनुष्य स्वयं को बदलने की पूरी क्षमता रखता है।
उपर्युक्त बिन्दुओं से यह स्पष्ट है कि मनुष्य-जीवन में प्रचुर योग्यताएँ विद्यमान हैं। यदि इनका सकारात्मक प्रयोग किया जाए, तो मनुष्य-जीवन विकास का साधन बन सकता है और यदि नकारात्मक प्रयोग किया जाए, तो विनाश का भी। इसमें रहकर एक ओर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है, तो दूसरी ओर नरक की भी। जीवन-प्रबन्धन का सम्यक् प्रयोग कर मनुष्य क्षमा, शान्ति, समता, सहिष्णुता, सरलता आदि सद्गुणों का चरम विकास कर सकता है। जैन-पुराणों में अर्जुनमाली,
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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