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आत्मतत्व-विचार नब चैतन्य अदृश्य हो जाता है और शरीर का काम बन्द हो जाता है । तात्पर्य यह है कि, चैतन्यगक्ति अथवा आत्मा देह के साथ ही उत्पन्न होती है और मृत्यु के बाद उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता।'
'इस परिस्थिति में मनुष्य का वर्तन कैसा होना चाहिए ?' इसका जवाब देते हुए वे कहते हैं
यावजोवं सुखं जीवेणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ ---जब तक जीओ सुख से जीओ, ऐटा आराम में रहो और हो जितना हो सके उतनी मौज करलो । अगर मजे उडाने के लिए तुम्हारे पास पैसे काफी न हो, तो किसी स्नेही-सम्बन्धी के पास से उधार ले लो, मगर बी पीना यानी माल-मलीटा उड़ाना चालू रक्खो । जलकर भस्मीभूत हो जाने के बाद यह देह फिर नहीं आनेवाली, फिर नहीं मिलनेवाली है। __ एक नास्तिक अपनी प्रियतमा से कैसे शब्द कहता है वह भी सुन लो: पिब खाद च चारुलोचने,
यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । न हि भीरु गतं निवर्तते,
समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ -~-हे सुन्दर नेत्र वाली स्त्री ! तू खा, पी, मौजकर 1- हे श्रेष्ठ अगवाली | जो गया वह तेरा नहीं है, यानी यौवन चला गया तो फिर नहीं मिलनेवाला । हे भीरु । ( पाप से डरने वाली ) गरीर गया कि फिर नहीं आता । यह गरीर तो पचभूतो का समुदाय मात्र है-अर्थात् उससे अतिरिक्त आत्मा-जैसी कोई वस्तु नहीं है कि जिसका विचार करना पड़े और पाप या परलोक से डरना पडे ।
नास्तिक लोग 'यह भव मीठा, परभव किसने देखा' १ ऐसा मानकर भोग-विलास में लीन रहते हैं, लेकिन जब वे विविध प्रकार के रोगो से घिर जाते है, तवं उनके गोक-सताप का पार नहीं रहता । मृत्यु उनको