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आध्यात्मिक आलोक के पास संघ ने आकर रक्षा की प्रार्थना की तब भद्रबाहु ने शान्ति के लिए एक स्तोत्र की रचना की और कहा कि इसके पाठ से कोई संकट नहीं रहेगा । यद्यपि मंत्र-यंत्र आदि विद्या की जानकारी या प्रयोग गृहस्थ को बताना जैन साधुओं के लिए वर्जित है, किन्तु आगम व्यवहारी होने से भद्रबाहु ने इसमें संघ रक्षा के साथ शासन की प्रभावना देखी । अतः 'उवसग्गहर' स्तोत्र की रचना कर दी जो आज भी अपने मंगल रूप में विद्यमान है।
कालान्तर से इस स्तोत्र का उपयोग साधारण दुःखों में भी होने लगा, तब कहा जाता है कि दुरुपयोग के कारण उसकी दो गाथाएं निकाल दी गई, स्तोत्र की पांच गाथा अभी भी शेष हैं।
पाप मानव के सत्यानाश का कारण बनता है, पाप से संताप मिलता है तथा धर्म आत्म-सुख का निमित्त है । देशविरति आनन्द का नमूना और पूर्ण त्याग में महामुनि भद्रबाहु का आदर्श हम सबके सामने है । अपने सामर्थ्य के अनुसार हमें साधना का रूप ग्रहण करना है । वीतराग की प्रेरणामयी वाणी का लाभ लेकर स्वयं साधना करने से लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह का कल्याण होगा और आत्मिक शान्ति प्राप्त होगी।