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साधना की भूमिका भगवान महावीर ने सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध, बुद्ध एंव निष्पाप बनाया और फिर संसार को अनुभव का मार्ग बताया। उन्होंने कहा कि हे मानवः! तू अपने ही बल से सफलता प्राप्त कर सकेगा। जब तक तू अपनी सामग्री का उपयोग नहीं करता, तब तक शहंशाह होकर भी भिखारी-सा मारा-मारा फिरता रहेगा। जिस दिन तू प्राप्त सुसामग्री का उपयोग करेगा, तेरा तेज संसार में चमक उठेगा। तू नक्षत्र मण्डल का अपूर्व ज्योतिर्धर रूप है, क्योंकि अन्य ज्योति-धारियों का तो अस्त होने का भी अवसर आता है, किन्तु विवेकपूर्वक काम लेने से तेरा आत्म तेज कभी अस्त होने वाला नहीं है।
अज्ञानान्धकार के दूर होने पर जो मनुष्य प्रभु के वचन को समझ पाते हैं, वे अनन्त काल के पाप कर्मों को काटकर मुक्त हो जाते हैं। प्रभु का ज्ञान स्वयं अनुभूत एवं दूसरों पर प्रयोग किया हुआ है। उन्होंने अनुभव से निश्चित किया कि विचार शुद्धि के बिना आचार शुद्धि सम्भव नहीं है। विचार शुद्धि के लिये अज्ञान एवं मिथ्यात्व से किनारा करना होगा। मिथ्यात्व और अज्ञान को दूर करने के निम्न उपाय बताए गए हैं।
परमत्थ संथवो वा, सुदिट्ठ परमत्थ सेवणं वावि । । सर्व प्रथम तत्वज्ञान, आत्मा-परमात्मा का ज्ञान अर्थात् जीव-अजीव, पुण्य, पाप एवं धर्म-अधर्म की जानकारी आवश्यक है। जिसने परमार्थ की जानकारी नहीं की वह उलझ जायेगा तथा उसे शान्ति प्राप्त नहीं होगी। परमार्थ का परिचय करने के लिये १. सच्छास्त्र एवं २. सत्संग दो साधन हैं । हर एक शास्त्र से परमार्थ प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि काम-शास्त्र, अर्थशास्त्र, रसायन शास्त्र, नाट्य-शास्त्र और