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आध्यात्मिक आलोक है । ताना-बाना बनाना, फिर उसमें एक-एक तार ( डोरा) डालते रहना आदि सब मिल कर अनेक क्रियाओं से एक कार्य की निष्पत्ति होती है । जुलाहे ने जब एक तार डाला तब वस्त्र को यदि नहीं बना कहा जाय तो दूसरा, तीसरा और चौथा तार डालने पर भी नहीं बना ही कहा जाएगा । इसी प्रकार अन्तिम तार डालने पर भी उसे बना हुआ नहीं कह सकते । जैसा पहला तार वैसा ही अन्तिम तार है । पहला तार एक होता है तो अन्तिम तार भी एक ही होता है । अगर एक तार से वस्त्र बना हुआ नहीं कहलाता तो अन्त में भी बना हुआ नहीं कहा जा सकेगा । अतएव यही मानना उचित है कि जब वस्त्र बन रहा है तो डाले हुए तारों की अपेक्षा उसे बना हुआ कहा जा सकता है ।
मगर जमालि की समझ में यह बात नहीं आई । सुदर्शना साध्वी भी उसके चक्कर में आ गई । सुदर्शना की साधिनी अन्य कई साध्वियों ने भी उसका साथ दिया।
देखा जाता है कि कभी-कभी बड़ी शक्तियां जिस कार्य में असफल सिद्ध हो जाती हैं, छोटी शक्ति उसे सम्पन्न करने में सफल हो जाती है ।
मध्यान्ह का समय था । कुंभकार ढंक घड़े पर थप्पियां लगा रहा था । कुछ दूरी पर बैठी साध्वियां स्वाध्याय कर रही थीं । ढंक को पता चल गया कि ये साध्वियां भगवान महावीर के वचनों पर विश्वास नहीं करती और जमालि के मत को मानती हैं । उसने सोचा-'संघ में अनैक्य होने से शासन को धक्का लगता है । तीर्थंकर का शासन संघ के सहारे ही चलता है और शासन चलता है तो अनेक भव्य जीव उसका आश्रय लेकर अपना आत्मकल्याण करते हैं । अतएव शासन की उन्नति के लिए संघ को समर्थ होना चाहिए । संघ की अनेकता को मिटाने का प्रयास करना प्रत्येक शासनभक्त का प्रथम कर्तव्य है । इसके अतिरिक्त ये साध्वियां मिथ्यात्व के चक्कर में पड़ी हैं। अतः इनका उद्धार करना भी महान् लाभ है।' .
इस प्रकार की प्रशस्त भावना कुंभकार के हृदय में उत्पन्न हुई । भावना ने प्रेरणा पैदा की और प्रेरणा ने युक्ति सुझाई । हृदय का बल उसके पास था । तर्कबल उसे प्राप्त नहीं था । तर्क के लिए उर्वर मस्तिष्क चाहिए । मगर तर्कबल की अपेक्षा भावना का बल प्रबल होता है ।
कुम्भकार ने साध्वी की एक चादर के छोर पर आग की एक चिनगारी डाल दी । चिनगारी ने अपना कार्य आरम्भ किया । वह चादर को जलाने लगी । चद्दर - का एक कोना जल गया साध्वियों ने चादर जलते देखकर कुम्भकार से कहा "देवानु-प्रिय ! तुमने यह चादर जला दिया ?"