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आध्यात्मिक आलोक जिस प्रकार अहिंसा आदि व्रत उपादेय हैं, उसी प्रकार उनके अतिचार त्यागने योग्य हैं । साधक का कर्तव्य है कि जब वह व्रतों को जान कर अंगीकार करे तो उनके अतिचारों को भी समझ ले और समझ कर उनसे क्यता रहे । जैसे उपादेय वस्तु को जाने बिना उसका उपादान अर्थात् उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार हेय वस्तु को जाने बिना उसका हार अर्थात् परिहार नहीं किया जा सकता । इसी कारण शास्त्र में अतिचारों के लिए 'जाणियव्वा न समायरियव्वा' ऐसा पाठ दिया गया है।
श्रावकधर्म और मुनिधर्म के सभी नियम और संवर, निर्जरा आदरणीय हैं। प्रत्येक व्यक्ति का धर्म के प्रति आदरभाव होना चाहिए और अतिचारों से बचना चाहिए।
आनन्द श्रावक यदि अणुव्रतों और शिक्षाव्रतों को मस्तिष्क तक ही रखता और आचरण में न लाता तो उसके जीवन का उत्थान न होता । वह व्रतों को समझता है और समझने के साथ अंगीकार भी करता है । वह व्रत के दूषणों को भी समझता और त्यागता है । व्रत के दोषों का त्याग किये बिना निर्मल व्रतपालन संभव नहीं है । आनन्द ने सातवें व्रत को ग्रहण करने के साथ पन्द्रह कर्मादानों का त्याग कर दिया, जिनका उल्लेख किया जा चुका है।
आठवां व्रत अनर्थदण्डत्याग है । जिसके बिना गृहस्थ का काम नहीं चलता, जो गृहस्थ जीवन में अनिवार्य है, ऐसी हिंसा का भले ही वह त्याग न कर सके, मगर निरर्थक हिंसा के पाप का त्याग तो उसे करना ही चाहिए । जिस हिंसा से किसी प्रयोजन की पूर्ति न होती हो, उसके भार से अपनी आत्मा को 'भारी एवं मलिन बनाये रखना बुद्धिमत्ता नहीं है । आनन्द ने अनर्थदण्ड का त्याग और संकल्प किया कि वह निरर्थक हिंसा एवं असत्य का व्यवहार नहीं करेगा । इस संकल्प की पूर्ति के लिए उसने इस व्रत के पांच अतिचारों का भी त्याग किया । अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं:-. .
(9) कन्दप्प ( कन्दर्पकथा)-जैसे सत्यभामा को भामा और बलराम को राम कह दिया जाता है, उसी प्रकार यहां कन्दर्पकथा को कन्दर्प कहा गया है।
मनुष्य को निरर्थक पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे आत्मा मलिन होती है और प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता । अनावश्यक कुतुहल के वशीभूत होकर, श्रृंगार के कारण अथवा दूसरों को प्रसन्न करने के लिए ऐसी बात करना कि जिससे भोग की प्रवृत्ति बढ़े या कामवासना जागत हो तो वह बेमतलब पाप करना है। हिन्दी साहित्य की रीतिकालीन रचनाओं का अध्ययन करने से पता चलता है कि उस काल में