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आध्यात्मिक आलोक
459 भगवान महावीर ने समझाया और जिन महापुरुषों ने समझा उनकी सुषुप्त चेतना जागृत हो गई । चेटक जैसा सम्राट भी श्रावक बन गया । राज्याधिकारी एवं राजाधिराज होकर भी उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये । उसने संकल्प किया कि मैं जान-बूझ कर निरपराध त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूंगा । रक्षात्मक कार्य करूंगा, संहारात्मक कार्य नहीं करूंगा । हानिकारक, धोखाजनक और अविश्वासकारक असत्य का प्रयोग नहीं करूंगा । उसने किसी के अधिकार को छीन कर लोलुपता के वशीभूत होकर राज्य की सीमाओं को बढ़ाने की चेष्टा नहीं की । श्रावकोचित सभी व्रतों को अंगीकार किया।
गणतन्त्र मिली-जुली शासन व्यवस्था है । इस व्यवस्था में जो सम्मिलित होता है उसके लिए व्रत ग्रहण करना साधारण बात नहीं है । चेटक चाहता तो बहाना कर सकता था, किन्तु साधना के क्षेत्र में आत्मवंचना को तनिक भी स्थान नहीं । अतएव साझेदारी की राज्य व्यवस्था होने पर भी उसने किसी प्रकार का बहाना नहीं
अठारह राजा जिस गण में सम्मिलित थे, उस गणराज्य का उत्तरदायित्व कुछ कम नहीं रहा होगा । एक राज्य को संभालना और इस बात का ख्याल रखना कि प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न हो, राज्याधिकारी कोई अन्यायपूर्ण कार्य करके प्रजा को कष्ट न पहुँचावे, सबल निर्बल को न दबावे, प्रजाजनों में नीति और धर्म का प्रसार हो, किसी प्रकार के दुर्व्यसन उसमें घर न करने पावें, सभी लोग अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए परस्पर सहयोग करें, राजा-प्रजा के बीच आत्मीयता का भाव बना रहे और साथ ही कोई लोलुप राजा राज्य की सीमा का उल्लंघन न कर सके, साधारण बात नहीं है । फिर चेटक को तो अठारह राज्यों के गण का अधिपति होने के कारण सीमा पर दृष्टि रखनी पड़ती थी । सबकी चिन्ता करनी पड़ती थी। फिर भी वह अपनी आत्मा को नहीं भूला । उसने लौकिक कर्तव्यपालन की धुन में लोकोत्तर कर्तव्यों को विस्मृत नहीं किया । एक विवेकशील और दूरदर्शी . सद्गृहस्थ के समान वह दोनों प्रकार के उत्तरदायित्व को बिना किसी विरोध के निभाता रहा । एक और वह गणतन्त्र का अधिपतित्व करता था तो दूसरी ओर अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन पौषध व्रत का भी आराधन करता था । पौषध व्रत में समस्त आरम्भ-समारम्भ का परित्याग करके धर्मध्यान में दिन-रात व्यतीत करना होता है। यह एक प्रकार से चौबीस घण्टों तक साधुपन का अभ्यास है। तन का पोषण तो पशु-पक्षी भी करते हैं, इसमें मनुष्य की कोई विशेषता नहीं है, आत्मा का पोषण करना ही मानव की विशिष्टता है और उसी से जीवन ऊंचा बनता है । इसी विश्वास से चेटक पौषध करता था ।