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[७९ ] निमित्त-उपादान
जीवन को साधना में लगाने के लिए निरन्तर प्रेरणा की आवश्यकता होती है। वह प्रेरणा आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की होनी चाहिए। संसार में जितने भी कार्य दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी उत्पत्ति किसी भी एक कारण से नहीं होती, दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि कार्य का उत्पाद सामग्री से होता है । सामग्री का अर्थ है-उपादान एवं विविध निमित्त कारणों की समग्रता | निमित्त के अभाव में अकेले उपादान से कार्य नहीं होता और न उपादान के बिना निमित्त कारण से ही कार्य का होना संभव है । साधना कार्य में भी यही व्यापक नियम लागू होता है।
बाह्य कारण भी प्रायः अनायास नहीं मिलता, फिर भी उसका मिलना आसान है। किन्तु वाह्य कारण के द्वारा यदि अंतरंग कारण न मिला तो साधक अपना जीवन सफल नहीं बना सकेगा।
साधना के क्षेत्र में अनेक बाह्य कारण उपयोगी होते हैं । साधक की योग्यता, रुचि, वातावरण आदि पर यह अवलम्वित रहता है कि कौन-सा कारण किसके लिए उपयोगी हो जाय । तथापि सत्संग बाह्य कारणों में सबसे ऊँचा है । वीतराग के सत्संग का लाभ मिलना सौभाग्य की बात है, परन्तु वाह्य कारण ही संब कुछ नहीं है । बाह्य कारण के मिलने से सभी को लाम हो जाएगा, ऐसी बात नहीं है। बाह्य कारण के साथ आन्तरिक कारण को भी जागृत करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
गृहस्थ आनन्द को बाहरी कारण मिला 1 परम प्रकृष्ट पुण्योदय से वह साक्षात् तीर्थकर देव का सानिध्य प्राप्त कर सका । उसका अन्तःकरण पहले से कुछ बना हुआ था और कुछ भगवान महावीर ने तैयार कर दिया । भगवान् की देशना का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा ।