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आध्यात्मिक आलोक करके अपने लिए गड्ढा खोदता है । अगर उसे शक्ति प्राप्त हो जाय तो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता है ।
मगर सज्जन पुरुष की विद्या दूसरों का अज्ञानान्धकार दूर करने में काम आती है । उसका धन दान में सफल होता है । सज्जन पुरुष धन को दीनों, असहायों और अनाथों को साता पहुँचाने में व्यय करता है और इसी में अपने धन एवं जीवन को सफल समझता है । सज्जन की शक्ति दूसरों की रक्षा में लगती है । वह यह नहीं सोचता कि अमुक व्यक्ति अगर पीड़ा पा रहा है, किसी सबल के द्वारा सताया जा रहा है, तो हमें क्या लेना-देना है ? वह जगत् की शान्ति में अपनी शान्ति समझता है । देश की समृद्धि में ही अपनी समृद्धि समझता है और अपने पड़ोसी के सुख में ही अपने सुख का अनुभव करता है ।
शक्ति की सार्थकता इस बात में है कि उसके द्वारा दूसरों के दुःख को दूर किया जाय । अपनी ओर से किसी को पीड़ा न पहुँचाना अच्छी बात है किन्तु कर्तव्य की इनिश्री इसी में नहीं है । कर्तव्य का तकाजा यह है कि पीड़ितों की सहायता की जाय, सेवा की जाय और उनकी पीड़ा का निवारण करने में कोई कसर न रखी जाय ।
सत्पुरुष सदैव स्मरण रखता है कि मानव जाति एक और अखण्ड है तथा पारस्परिक एवं सौहार्द्र से ही शान्ति की स्थापना की जा सकती है । मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख माने और सब के प्रति यथोचित सहानुभूति रखे।
लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य को नहीं समझते । इसी कारण बहुतों की ऐसी धारणा बन गई है कि धर्म का सम्बन्ध इस लोक और इस जीवन के साथ नहीं है वह तो परलोक और जन्मान्तर का विषय है । किन्तु यह धारणा भ्रमपूर्ण है । धर्म का दायरा बहुत विशाल है । धर्म में उन सब कर्तव्यों का समावेश है जो व्यक्ति और समाज के वास्तविक मंगल के लिए हैं, जिनसे जगत् में शान्ति एवं सुख का प्रसार होता है | धर्म मनुष्य के भीतर घुसे हुए पिशाच को हटा कर उसमें देवत्व को जागृत करता है । वह भूतल पर स्वर्ग को उतारने की विधि बतलाता है । धर्म कुटुम्ब, ग्राम, नगर, देश और अखिल विश्व में सुखद वातावरण के निर्माण का प्रयत्न करता है । आज दुनिया में यदि कुछ शिव, सुन्दर एवं श्रेयस्कर है तो वह धर्म की ही मूल्यवान देन है।
धर्म की शिक्षा अगर सही तरीके से दी जाय तो किसी प्रकार के संघर्ष, वैमनस्य या विग्रह को अवकाश नहीं रह सकता । थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए