Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 585
________________ 577 आध्यात्मिक आलोक ____ मान लीजिए एक तश्तरी में शिलाजीत और अफीम का टुकड़ा पड़ा है। यदि शिलाजीत के बदले अफीम खाली जाये तो सब खेल खत्म हो जाएगा । परन्तु जो शिलाजीत को पहचान कर खाएगा, उसे कोई खतरा नहीं होगा । इसी कारण अज्ञात वस्तु खाने का निषेध किया गया है । तात्पर्य यह है कि क्या ग्राह्य है और क्या अग्राहय है, यह जानने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। इसके बिना की जाने वाली क्रिया सफल नहीं होती।। ज्ञान नेत्र हैं तो क्रिया पैर हैं। नेत्र मार्ग दिखलाएगा, पैर रास्ता तय करेगा।. पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष, जीव-अजीव आदि का ज्ञान मानो नेत्र हैं । इस ज्ञान को क्रिया रूप में परिणत किया जाय तो यह वरदान सिद्ध होगा । अतएव सच्या आराधक वही है जो ज्ञान और क्रिया का समन्वय साध कर अपने जीवन को उन्नत करता है। ___ अनेक जानकार व्यक्ति साधना के पथ पर नहीं चलते, परन्तु वे साधना के महत्व को स्वीकार करते हैं । सच्चे ज्ञान के होने पर यदि बहिरंग क्रिया न भी हो तो अंतरंग क्रिया जागृत हो ही जाती है । ऐसा न हो तो सच्चे ज्ञान का अभाव ही समझना चाहिए। इस प्रकार जीवन को ऊँचा उठाने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों के संयुक्त बल की आवश्यकता है। सामायिक साधना में भी ये दोनों अपेक्षित हैं। इन दोनों के आधार पर सामायिक के भी दो प्रकार हो जाते हैं-१) श्रुत सामायिक और चारित्र सामायिक। मुक्तिमार्ग में चलना चारित्र सामायिक है । इसके पूर्व श्रुत सामायिक का स्थान है जिससे जीवन की प्रगति या आत्मिक उत्कर्ष के लिए आवश्यक सही प्रकाश मिलता है । इसी प्रकाश में साधक अग्रसर होता है और यदि यह प्रकाश उपलब्ध न हो तो वह लड़खड़ा जाता है। व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन में विकारों का जो प्रवेश होता है, उसका कारण सही ज्ञान न होना है । ज्ञान के आलोक के अभाव में मनुष्य विकारों का मार्ग ग्रहण कर लेता है । इस कुमार्ग पर चलते चलते वह ऐसा अभ्यस्त हो जाता है, एक ऐसे ढांचे में ढल जाता है कि उसे त्यागने में असमर्थ बन जाता है । ऐसी स्थिति में उसका सही राह पर आना तभी संभव है जब किसी प्रकार उसे ज्ञान का प्रकाश मिल सके । ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य नियमित रूप से स्वाध्याय करे।

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