________________ आध्यात्मिक आलोक ___591 (6) लब्धोऽसि हे कुशलवंश-धुराधुरीण / संसार-तारणविधौ पटुकर्णधारः। चित्तं कषाय-निखिलार्ति-हरौषधं त्वा, कल्पद्व माममपि प्राप्त सुपीड़ितोऽस्मि / / हे कुशल-वंश-श्रमण परम्परा के कुशल धुराग्रणी नायक ! भव्यों को संसार-सागर से पार लगाने वाले आप जैसे समर्थ कर्णधार मुझे मिल गये हैं / मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि विषय-कषायों तथा सब प्रकार के दुःख-द्वन्द्व को नष्ट कर देने में समर्थ दिव्य औषधि तुल्य एवं सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष के समान आपको पाकर भी मैं ( भव-रोग से ) पीड़ित हूँ। (7) नाम्नापि ते गुरु गजेन्द्र ! लयं व्रजन्ति, विघ्नोपसर्ग-दुरितौधभव-प्रपञ्चाः / साक्षात् शिवौध ! तब दर्शन-चन्दनेन, करियोयदिलयं ति किमत्र चित्रम् / / हे गुरुदेव गजेन्द्राचार्य ! आपका नाम लेते ही सभी प्रकार के विघ्न, उपसर्ग, पापपुंज और संसार के प्रपञ्च तिरोहित हो जाते हैं, तो हे मूर्तिमान कल्याणकुंजा आपके दर्शन और वन्दन से यदि कर्मशत्रु नष्ट होते हैं, तो इसमें आश्चर्य ही क्या (8) प्रातर्जपामि मनसा तव नाममन्त्रं मध्येऽन्हि ते स्मरणमस्तु सदा गजेन्द्र / सायं च ते स्मरणमस्तु शिवात नित्यं, नामैव ते वसतु शं हृदयेऽष्मदीये / / हे गजेन्द्राचार्य ! मैं प्रातःकाल आपके नाममन्त्र का अन्तर्मन से जप करता हूँ। मध्याह्न में भी आपके मंगलकारी नाममंत्र का स्मरण रहे / नित्य ही सायंकाल के समय में भी कल्याण के लिये आपका स्मरण रहे / हे देव ! हमारे हृदय में केवल आपका कल्याणकारी नाम ही बसा रहे। - गजसिंह राठौड़