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गुरु-गजेन्द्र-गणि-गुणाष्टकम् वसन्ततिलकावृत्तम्
(१) हे तात ! हे दयित ! हे भुवनैकवन्धो ! शोमानिधे ! सरल! हे करुणैकसिन्चो ! त्वामाश्रितो गुरु-गजेन्द्र जगच्छरण्य!
मां तारयाशु भवयेस्तु भवाब्धिपोत! हे प्राणाधिक वल्लम तात ! हे त्रिभुवन के एकमात्र बन्धो ! हे शोभा के सागर ! है नितान्त सरल ! करुणा के अथाह सिन्धु ! संसार के सचराचर प्राणिवर्ग को शरण प्रदान करने वाले गुरुवर गजेन्द्र ! (श्री हस्तिमलजी महाराज साहब ) मैं आपकी शरण में आया है। है भवसागर से पार उतारने वाले महान् जहाज ! मुझे शीन ही संसार-सागर से पार उतारिये ।
स्वाध्यायसंघ-सहधर्मिसमाज सेवा, सिद्धान्त-शिक्षणविधौ विविधोपदेशः।
अध्यात्मबोधनपरास्तव शंखनादाः
गुरुजन्ति देव ! निखिले महिमण्डलेऽस्मिन ।। हे गुरुदेव ! स्वाध्याय संघ, सहधर्मि-वात्सल्य, समाज-सेवा एवं शास्त्रों के शिक्षण के सम्बन्ध में आपके विविध विषयों के उपदेश और अध्यात्म-भाव को प्रबुद्ध कर देने वाले आपके शंखनाद इस सम्पूर्ण महिमण्डल में गूंज रहे हैं ।
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