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आध्यात्मिक आलोक
(३)
क्षोण्या सदा तिलकभूतमरोर्धरायाम,
राठोड़वंशक्षितिपैः परिपालितायाम् । रूपा-सती-तनय ! केवलचन्द्रसूनो ! जन्माभवत् तव कलेः मदभञ्जनाय ।।
हे रूपासतो के लाल-श्री केवलचन्द्रजी के आत्मज ! आपका. जन्म कलिकाल के प्रभाव को निरस्त करने के लिये, राठोड़ वंश के राजाओं द्वारा सुशासित-सुरक्षित सदा सकल महीमण्डल की तिलक स्वरूपा मरुभूमि में हुआ।
(४)
तिर्यक-न-नारक-निगोद-सुरासुराणां, बंभ्रम्य योनिनिवहेषु चिरौघकालम्।
पूर्वार्जितैः शुभतरैगणिवर्यपुण्यैः,
लब्धास्ति ते चरणरेणु-पुनीत-सेवा ।। हे आचार्य प्रवर ! मुझे नरक, निगोद, तिर्यञ्च, मानव, देव, असुर आदि चौरासी लाख जीव योनियों में अनन्त काल तक भटकने के पश्चात् पूर्व जन्मों में उपार्जित अतीव शुभ पुण्यों के फलस्वरूप आपके चरणारविन्दों की पवित्र रज की सेवा. प्राप्त हुई है।
(५) रत्नत्रयं दुरित-दुर्गक्षयेक वज्र, प्राप्तोऽस्मि पूज्य ! तव भूरि दया प्रसादात् ।
मिथ्यात्व मोह-ममता-मद-लुम्पकाः मां,
किं हा तथापि न हि देव ! परित्यजन्ति ।। हे पूज्यवर ! आपकी असीम दया के प्रसाद से, मुझे. पापों के गढ़ को नष्ट करने में पूर्णतः सक्षम, वज्रतुल्य रत्नत्रय प्राप्त हुआ है । तथापि हे आराध्यदेव ! यह
दुःख की बात है कि ये मिथ्यात्व, मोह, ममत्व और मद रूपी लुटेरे मेरा पीछा क्यों • नहीं छोड़ रहे हैं ?