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आध्यात्मिक आलोक एकाधिकार कर लिया था। मगर लौंकाशाह ने समाज को अधेरे से बाहर निकाला। वस्तुस्वरूप को उन्होंने समझा था, इस कारण मार्ग का स्वरूप सामने आया । श्रुतज्ञान का अभाव कुछ हद तक दूर हुआ । मगर आज की नयी. पीढ़ी श्रुतज्ञान के प्रति उदासीन होती जा रही है । धार्मिक विज्ञान की दृष्टि से कितने प्रकार के जीव होते हैं, तरुण पीढ़ी वाले यह नहीं बता सकेंगे । जहाँ इतनी बात का भी पता न हो वहां धर्म एवं शास्त्रों के हार्द को समझे जाने की क्या आशा की जा सकती है? लौकाशाह ने सोचा कि श्रुतज्ञान तो प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है, और लौकाशाह के कहलाने वाले अनुयायी आज श्रुतज्ञान के प्रति उपेक्षाशील हो रहे हैं, यह खेद और विस्मय की ही बात है।
धार्मिक संघर्ष के समय साहित्य के विनाश का क्रम भी चला था । जैसे सैनिक दल विरोधी पक्ष के खाद्य और शस्त्रभण्डार आदि का विनाश करते हैं, वैसा ही विरोधी धर्मावलम्बियों ने साहित्य का विनाश किया । फिर भी आज हमारे समक्ष जो श्रुतराशि है, वह सत्य मार्ग को समझने-समझाने के लिए पर्याप्त है। .
लौकाशाह ने उनके अध्ययन का गृहस्थों के लिए भी समर्थन किया । उन्होंने समाज में फैले उन विकारों को भी दूर किया, जो सम्यग्दर्शन के लिहाज से बुरे थे । सामायिक पौषध को उड़ाने की बात उन्होंने नहीं कही, सिर्फ विकारों पर ही चोट लगाई।
हम बँधे हैं जिन वचनों से । जिन क्चन के नाम पर की गई या की जाने वाली स्खलनाओं से हम नहीं बँध हैं । हम महावीर के वचनों से बँधे हैं जिनके लिए आत्मोत्सर्ग करना अपना सौभाग्य समझेगे।
विक्रम सम्वत् १५३० में ५४ जनों के साथ लौंकाशाह जिन-धर्म में दीक्षित हुए। उन्होंने कोई नयी चीज नहीं रखी, सिर्फ भूली वस्तु की याद दिलाई । जैसे भूगर्भशास्त्रवेत्ता जलधारा को जान कर गांव के पास उस स्रोत को ला सकता है, ऐसी ही बात लौकाशाह के प्रति कह सकते हैं । मगर यह भी कोई कम महत्व की बात नहीं है.। सोयी जनता को उन्होंने जगाया और कहा कि महात्मा जो कहें सो मान लें, यह ठीक नहीं है । हम स्वयं श्रुत की आराधना करें । कवि ने कहा है
कर लो श्रुत वाणी का पाठ, भविक जन, मन-मल हरने को । बिन स्वाध्याय ज्ञान नहीं होगा, · ज्योति जगाने को । राग-रोष की गांठ गले नहीं, बोधि मिलाने को । जीवादिक स्वाध्याय से जानो, करणी करने को। बन्ध-मोक्ष का ज्ञान करो, भवभ्रमण मिटाने को ।।
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