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[८४ ] विदाई की बेला में
भगवान महावीर ने जीवन को उच्च बनाने और आत्मा को निर्मल बनाने के लिए रत्नत्रयी का सन्देश दिया है, जिसमें (१) सम्यग्ज्ञान (२) सम्यग्दर्शन और () सम्यकचारित्र का समावेश होता है । साधु-साध्वीवर्ग इन तीन रत्नों की उपासना को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य मान कर प्रवृत्ति करता है । श्रावक-श्राविकाओं को भी यथाशक्ति इनकी आराधना करनी होती है। इनकी यथासंभव आराधना से ही श्रावक-श्राविका का पद प्राप्त होता है।
अपनी श्रेयस् साधना के लिए ही साधु-साध्वीवर्ग निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं-एक स्थान पर स्थिर रह कर निवास नहीं करते । यदि साधु-साध्वी एक स्थान में रहें तो उनका जीवन गतिशील नहीं रह जाएगा । संत एक विशिष्ट लक्ष्य को लेकर चलते हैं। वह लक्ष्य विराग से ही प्राप्त किया जा सकता है। न किसी पर राग, न किसी पर द्वैष हो । समभाव या तटस्थ वृत्ति का जीवन में जितना अधिक विकास होगा, उतनी ही शान्ति और निराकुलता की प्राप्ति हो सकेगी । मनुष्य दुःख, शोक, सन्ताप आदि से ग्रस्त रहता है, इसका मूल कारण उसकी राग-द्वेषमय वृत्ति है। इससे पिण्ड छुड़ाना सुख, शान्ति और आत्मकल्याण के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी
एक स्थान में स्थिर रहने से स्नेह सम्बन्ध आसक्ति के रूप में न बदल जाय, इस सम्भावना को ध्यान में रखते हुए भगवान् ने सन्त-सतियों के लिए सतत् विचरण करने का विधान किया है । प्रभु ने कहा-"हे साधको ! भ्रमण करने से शारीरिक श्रम होगा, काययोग का हलन चलन होगा और धर्म की वृद्धि भी होगी । यदि तुम विचरणशील रहोगे तो तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी और दूसरों को लाभ होगा।" कहा है
बहता पानी निर्मला, पड़ा गंदीला होय । साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ।