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[ ८२ ] जीवन का कुगतिरोधक - संयम
आत्मा का स्वाभाविक गुण चैतन्य है । वह अनन्त ज्ञान-दर्शन का पुंज परमज्योतिर्मय, आनन्दनिधान, निर्मल, निष्कलंक और निरामय तत्व है । किन्तु अनादिकालीन कर्मावरणों के कारण उसका स्वरूप आच्छादित हो रहा है । चन्द्रमा मेघों से आवृत होता है तो उसका स्वाभाविक आलोक रुक जाता है, मगर उस समय भी वह समूल नष्ट नहीं होता । इसी प्रकार आत्मा के सहज ज्ञानादि गुण
आत्मा के स्वभाव हैं कर्मरूपी मेघों द्वारा आवृत्त हो जाने पर भी उनका समूल विनाश नहीं होता । वायु के प्रबल वेग से मेघों के छिन्न-भिन्न होने पर चन्द्रमा का सहज आलोक जैसे चमक उठता है, उसी प्रकार कर्मों का आवरण हटने पर आत्मा के गुण अपने नैसर्गिक रूप में प्रकट हो जाते हैं । इस प्रकार जो कुछ प्राप्य है, वह सब आत्मा को प्राप्त ही है । उसे बाहर से कुछ ग्रहण करना नहीं है । उसका अपना भण्डार अक्षय और असीम है।
बाहर से निधि प्राप्त करने के प्रयत्न में भीतर की निधि खो जाती है । यही कारण है कि जिन्हें अपनी निधि पानी है, वे बड़ी से बड़ी बाहरी निधि को भी ठुकरा कर अकिंचन बन जाते हैं । चक्रवर्ती जैसे सम्राटों ने यही किया है और ऐसा किये बिना काम चल भी नहीं सकता।
- बास्य पदार्थों को ठुकरा देने पर भी अन्दर के खजाने को पाने के लिए प्रयास करना पड़ता है। वह प्रयास साधना के नाम से अभिहित किया गया है । भगवान महावीर ने साधना के दो अंग बतलाए हैं - संयम और तप । संयम का सरल अर्थ है - अपने मन, वचन और शरीर को नियन्त्रित करना, इन्हें उच्छंखल न होने देना, कर्मबन्ध का कारण न बनने देना । मन से अशुभ चिन्तन करने से, वाणी का दुरुपयोग करने से और शरीर के द्वारा अप्रशस्त कृत्य करने से कर्म का बन्ध होता है। इन तीनों साधनों को साध लेना ही साधना का प्रथम अंग है । जब इन्हें पूरी