________________
571
आध्यात्मिक आलोक
अर्थात् साधक कहता है कि मैं सभी दुःखों का क्षय करने वाली मृगचर्या का आचरण करूंगा । आगमों में भी यत्र-तत्र इस तरह के उपदेश कण सर्वत्र विखरे
इन्हीं सब वीतराग पुरुषों ऋषि मुनियों के उपदेशों से सार ग्रहण करके इस देश के निर्माताओं ने इस देश की खान-पान एवं रहन-सहन प्रमुख एक परम वैज्ञानिक ग्राम्य जीवन पद्धति की नींव डाली ।
आज पुनः उसी जीवनपद्धति के पुनरुज्जीवन की आवश्यकता है । इसके बिना देश का स्वास्थ्य खतरे में हैं । वैज्ञानिक इस ओर अपनी खोज को और आगे बढ़ावें और देश की एक अपनी स्वतन्त्र खान-पान एवं रहन-सहन की राष्ट्रीय जीवन-पद्धति का आज की परिस्थितियों को देखकर पुनः निर्धारण करें। इसमें जैन आगमों ने "मृगचर्या" पद्धति के अलावा यम-नियम-संयम, ब्रह्मचर्य, योगासन, ध्यान, प्राणायाम, व्रत, उपवास, आयबिल आदि का भी स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है । सात्विक एवं प्रकृति जन्य शुद्ध औषध प्रयोग की बात का उल्लेख भी मिलता है।
जैन-सिद्धान्त में नित्य प्रति द्रव्यों का परिमाण प्रत्येक सदगृहस्थ द्वारा करने का भी विधान है । इसके पीछे भी आध्यात्मिकता के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी गहरा अर्थ छिपा हुआ है । शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से भी जितने कम से कम सुपाच्य एवं शुद्ध सात्विक पदार्थ खाने में आवेगे, पाचन शक्ति को कम श्रम में उतने ही अधिक पोषक तत्त्व प्राप्त हो जाएँगे । उसे अतिरिक्त पाचन शक्ति खर्च नहीं करनी पड़ेगी । इससे स्वतः ही स्वास्थ्य की रक्षा एवं उसकी वृद्धि होती रहेगी। व्यक्ति के बीमार होने का अवसर ही नहीं रहेगा । इसीलिये आज के प्राकृतिक चिकित्सक कहते भी हैं कि मानव बीमार होने के लिए पैदा ही नहीं हुआ । उसके लिये स्वस्थ रहना अधिक आसान है बीमार होना कठिन है बशर्ते कि वह प्रकृति के निकट रहे । उसका आचरण रहन-सहन खान-पान प्रकृति के पूर्ण अनुकूल हो ।
इस विषय में आज प्राकृतिक चिकित्सा एवं रहन-सहन, खान-पान विषयक बहुत-सा सामायिक साहित्य भी निकल रहा है । इसका भी अध्ययन करना स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है । मनीषियों ने कहा भी है
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् धर्म-आराधना निष्कंटक होती रहे इसके लिये शरीर के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना गृहस्थ के लिये अति आवश्यक है । उनका खान-पान, रहन-सहन अगर