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आध्यात्मिक आलोक चित्त कामनाओं से आकुल है, उसको सच्चा श्रावक वन्दनीय नहीं मान सकता। खाने-पीने की सुविधा और मान-सम्मान के लोभ से कई साधु का वेष धारण कर लेते हैं पर उतने मात्र से ही वे वन्दना के योग्य नहीं होते हैं।
इसी प्रकार जिसमें अठारह दोष विद्यमान नहीं हैं, जो पूर्ण वीतराग, निष्काम, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी परमात्मा है, वही देव के रूप में स्वीकरणीय, वन्दनीय और महनीय है। जिनमें राग, द्वेष, काम आदि विकार मौजूद हैं, वे आत्मार्थी साधक के लिए कैसे वन्दनीय हो सकते हैं ? राग-द्वेष आदि विकार ही समस्त संकटों, कष्टों और दुःखों के मूल हैं । इन्हें नष्ट करने के लिए ही साधना की जाती है । ऐसी स्थिति में साधना का आदर्श जिस व्यक्ति को बनाया गया हो और अगर वह स्वयं इन विकारों से युक्त हो तो उससे हमारी साधना को कैसे प्रेरणा मिलेगी ?
कोई किसी में देवत्व का आरोप भले करले, कलम और तलवार की पूजा भले कर ली जाय, परन्तु वे देव की पदवी नहीं पा सकते । यह पुजा तो कोरा व्यवहार है। अगर कोई व्यक्ति परम्परा या प्रवाह के कारण अथवा भय की भावना से देव की पूजा करता है तो उसकी समझ गलत है । हम जिस शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं, उसे जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, जिस पथ पर हम चल रहें हैं उस पर चलकर जो मंजिल तक पहुँच चुके हैं, वे ही हमारे लिए अनुकरणीय हैं। हम उन्हीं को आदर्श मानते हैं और उन्हीं के चरणचिन्हों पर चलते हैं । यही हमारी आदर्शपूजा समझो या देवपूजा समझ लो।
ज्ञानवल के अभाव में मानव तत्व को नहीं समझ पाता । बहुत लोग समझते हैं कि हमारे सुख-दुःख का कारण दैवी कृपा या अकृपा है। अर्थात् देव के रोष से दुःख और तोष से सुख होता है। पर इस समझ में भ्रान्ति है । यदि आपके पापकर्म का उदय नहीं है तो दूसरा कोई भी आपको दुःखी नहीं बना सकता। सुख हो या दुःख, उसका अन्तरंग कारण तो हमारे भीतर ही विद्यमान रहता
जहाँ बीज होता है वहीं अंकुर उगता है, इस न्याय के अनुसार जिस आत्मा में सुख-दुःख की उत्पत्ति होती है, उसीमें उसका कारण होना चाहिए । इससे यही सिद्ध होता है कि अपना शुभाशुभ कर्म हो अपने सुख-दुःख का जनक है । आचार्य अमितगति कहते हैं
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दतं यदि लम्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥