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आध्यात्मिक आलोक अर्थात् आत्मा ने पूर्वकाल में जो शुभ और अशुभ कर्म उपार्जित किये हैं, उन्हीं का शुभ और अशुभ फल उसे प्राप्त होता है । अगर आत्मा दूसरे के द्वारा प्रदत्त फल को भोगने लगे तो उसके अपने किये कर्म निरर्थक-निष्फल हो जाएँगे ।
हे आत्मन् ! तु सब प्रकार की भ्रान्तियों को त्याग कर सत्य तत्व पर श्रद्धा कर । तुझे कोई भी दूसरा सुखी या दुःखी नहीं बना सकता । तू भ्रम के वशीभूत होकर पर को सुख-दुःखदाता समझता है । इस भ्रम के कारण तेरी बहुत हानि होती है । जिसके निमित्त से सुख प्राप्त होता है उसीको तू सुखदाता समझकर उस पर राग करता है और जिसके निमित्त से दुःख प्राप्त होता है उसे दुःखदाता समझकर उस पर द्वेष धारण करता है। राग-द्वेष की इस भ्रमजनित परिणति से आत्मा मलिन होती है । इसके अतिरिक्त इससे चित्त को अशान्ति होती है और अनेक प्रकार के अनर्थ भी उत्पन्न होते हैं। त दूसरों को अपना शत्रु मान कर उनसे बदला लेने का प्रयत्न करता है। इससे आत्मा में अशुद्धि की एक लम्बी परम्परा चल पड़ती है।
___ इसके विपरीत, जिसने इस सचाई को समझ लिया है कि आत्मा स्वयं ही अपने सुख-दुःख का निर्माता है, वह घोर से घोर दुःख का प्रसंग उपस्थित होने पर भी, अपने आपको ही उसका कारण समझ कर समभाव धारण करता है और उसके लिए किसी दूसरे को उत्तरदायी नहीं ठहराता | आगम में भी स्पष्ट कहा गया है
अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मितममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ।। (उत्तराध्ययन, अ. २०, गाथा ३७)
आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और हर्ता है और आत्मा ही अपनी मित्र व शत्रु है ।
तात्पर्य यह है कि यदि पापकर्म का उदय न हो तो दूसरा कोई भी आपको कष्ट नहीं दे सकता, अतएव बहिर्दृष्टि को त्याग कर अन्तर्दृष्टि को अपनाओ और बाह्य निमित्त को ही सब कुछ न समझो ।
आंधी के समय साधारण फूस से आंख जाते-जाते बचती है तो फूस को देवता नहीं माना जा सकता ।
___सरागी देवों का असम्मान नहीं करना है, परन्तु उनसे मांगना भी नहीं है । देवाधिदेव के चरणों में वन्दन किया जाय तो देवों का प्रसन्न हो जाना सामान्य बात है । सरागी देवों को वन्दन, नमन, उनसे आलाप, संलाप, आदान और प्रदान, ये छह बातें नहीं करनी चाहिए।