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आध्यात्मिक आलोक . अन्तःकरण वस्तुतः भीतर की योग्यता है । उस योग्यता को चमकाने वाला बाह्य कारण है । आन्तरिक योग्यता के अभाव में बाह्य कारण अकिचित्कर होता है। यदि मिट्टी में घर निर्माण करने की अर्थात् घटपर्याय के रूप में परिणत होने की योग्यता नहीं है तो लीद, पानी, कुंभकार, चाक आदि विद्यमान रहने पर भी घट नहीं बनेगा । कुंभकार चाक को घुमा-घुमाकर हैरान हो जाएगा मगर उसे सफलता प्राप्त न होगी । चाक में कोई दोष नहीं है, कुंभकार के प्रयत्न में भी कोई कमी नहीं है, मगर मिट्टी में वह योग्यता नहीं है । आगरे के पास की मिट्टी से जैसा अच्छा घड़ा बनेगा, वैसा राजस्थान की मिट्टी से नहीं । यह नित्य देखी जाने वाली वस्तु का उदाहरण है।
अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना आत्मा का मूल कार्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा सत्संग और स्वाध्याय निमित्त कारण हैं । इनसे आत्मा में शक्ति आ जाती है।
तार कमजोर हो गया था । वह गिरने वाला ही था कि उस पर कौवा बैठ गया । लोग कौवा को निमित कहने लगे । किन्तु तार में यदि कच्चापन न होता तो कौवा क्या कर सकता था ? सूरदास तथा भक्त विल्वमंगल को क्या वेश्या चिन्तामणि जगा सकी थी ? वास्तव में वैराग्य की भूमिका उनके हृदय में बन चुकी थी, रही-सही कमजोरी चिन्तामणि की उक्ति ने पूरी कर दी । सामान्यतः विल्वमंगल और सूरदास के वैराग्य के लिए लोग चिन्तामणि को निमित्त मानते हैं परन्तु तथ्य यह है कि आत्मा में यदि थोड़ी जागृति हो तो सामान्य निमित्त मिलने से भी पूरी जागृति उत्पन्न हो जाती है।
__ प्रभु महावीर का निमित्त पाकर आनन्द का उपादान जागृत हो गया । जब साधक की मानसिक निष्ठा स्थिर हो जाती है तो वह अपने को व्रतादिक साधना में स्थिर बना लेता है। किन्तु साधना के क्षेत्र में देव और गुरु के प्रति श्रद्धा की परम आवश्यकता है । जिसको हम देव और गुरु के रूप में स्वीकार करना चाहें, . पहले उनकी परीक्षा कर लें। जो कसौटी पर खरा उतरे उससे अपने जीवन में प्रेरणा ग्रहण करें । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरों के प्रति किसी प्रकार की द्वेष भावना रखी जाय । साधक भूतमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखता है परन्तु जहाँ तक वन्दनीय का प्रश्न है, जिसने अध्यात्ममार्ग में जितनी उन्नति की है, उसी के अनुरूप वह वन्दनीय होगा । गुरु के रूप में वही वन्दनीय होते हैं, जिन्होंने सर्व आरंभ और सर्व परिग्रह का त्याग कर दिया हो और जिनके अन्तर में संयम की ज्योति प्रदीप्त हो। जिन्होंने किसी भी पंथ या परंपरा के. साधु का वाना पहना हो परन्तु जी संयमहीन हों वे वन्दनीय नहीं होते। जिसकी आत्मा मिथ्यात्व के मैल से मलिन है और