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आध्यात्मिक आलोक जीवन कला का ज्ञान न होता तो स्थूलभद्र काम पर विजय प्राप्त करके वेश्या रूपकोषा को श्राविका नहीं बना पाते । उस समय उन्हें पूर्वश्रुत का ज्ञान अवश्य नहीं था, मगर जीवन की कला को उन्होंने भलीभाँति अधिगत कर लिया था । उसी के सहारे वे आगे बढ़ सके और बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त कर सके।
रूपकोषा को जीवन की कला प्राप्त करने में स्थूलभद्र का अनुकूल निमित्त मिल गया । कई लोग समझते हैं कि निमित्त कुछ नहीं करता, केवल उपादान ही कार्यकारी है । मगर यह एकान्त युक्ति और अनुभव से बाधित है । निमित्त कारण कुछ नहीं करता तो उसकी आवश्यकता ही क्या है ? निमित्त कारण के अभाव में अकेले उपादान से ही कार्य क्यों नहीं निष्पन्न हो जाता ? उदाहरण के लिए कर्मक्षय को ही लीजिए । कर्मक्षय या मोक्ष का उपादान कारण आत्मा है, अगर आत्मा के द्वारा ही कर्मक्षय होना है तो फिर प्रत्येक आत्मा मुक्त हो जानी चाहिए | आत्मा अनादिकालीन है, उसे अब तक संसार अवस्था में क्यों रहना पड़ रहा है ? .
कहा जाता है कि निमित्त कारण करता कुछ नहीं है, फिर भी उसकी उपस्थिति आवश्यक है । मगर इस कथन में विशेष तथ्य नहीं है । जो कुछ भी नहीं करता, प्रथम तो उसे निमित्त कारण ही नहीं कहा जा सकता । कदाचित् कहा भी जाय तो उसकी उपस्थिति की आवश्यकता ही क्या है ? कुछ न करने वाले पदार्थ की उपस्थिति यदि आवश्यक है तब तो एक कार्य के लिए संसार के सभी पदार्थों की उपस्थिति आवश्यक होगी और उनकी उपस्थिति होना संभव न होने से कोई कार्य ही नहीं हो सकेगा।
अनेकान्त सिद्धान्त का अभिमत यह है कि उपादान और निमित्त दोनों कारणों के सुमेल से कार्य की निष्पत्ति होती है । निमित्त कारण मिलने पर भी उपादान की योग्यता के अभाव में कार्य नहीं होता और उपादान की विद्यमानता में भी यदि निमित्त कारण न हो तो भी कार्य नहीं होता ।
शास्त्र की बात जो चल रही है, उसके सुनाने में मैं भी निमित्त हूँ और मेरे सुनाने में आप निमित्त हैं । घड़ी भर पहले भले ही कुछ दूसरी लहरें आपके चित्त में उठती रही हों किन्तु आगमवाणी का निमित्त पाकर कुछ प्रशस्त भावना आपके मन में आई होगी । मगर मूल कारण उपादान है जो छिपा हुआ है।
___महामुनि भगवाहु के साथ स्थूलभद्र की ज्ञानाराधना की चर्चा पिछले दिनों से चल रही है । ज्ञानामृत को वितरण करते-करते उन्होंने देहोत्सर्ग किया । श्रुत के बीज आज जो उपलब्ध हैं, वे उनकी ज्ञानाराधना का मधुर फल है । समाधिमरणपूर्वक . महामुनि भद्रबाहु ने अपनी जीवन-लीला समाप्त की । उन्होंने श्रुतकेवली का पद प्राप्त