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आध्यात्मिक आलोक पा लेता है तो वह कंधा बदलने के समान पहला विश्रान्तिस्थल है । इस स्थिति में शारीरिक और वाचनिक व्यापार का भार उतर जाता है, सिर्फ मन पर भार लदा रहता है । सन्त समागम की दशा में भी संसारी जीव के मन की कड़ी पर आरम्भ समारम्भ का भार अटका रहता है । इस पर भी उसे किचित विश्राम मिलता है । इस पर श्रमणों के सान्निध्य में उपाश्रय में आकर बैठने से गृहस्थ को पहला विश्राम मिलता है।
सामायिक व्रत को अंगीकार करना या देशावगाशिक व्रत धारण करना और कुछ पापों का निरोध करना दूसरा विश्रामस्थल है, इन व्रतों को धारण करने से अशान्त मन को कुछ शान्ति मिलती है ।
समस्त आरंभ-समारंभ को चौबीस घंटे के लिए त्याग कर पौषध व्रत धारण करना तीसरा विश्रामस्थल है।
दिन रात अमर्यादित जीवन, लालच, तृष्णा एवं असंयम के कारण सन्तप्त रहने वाला मनुष्य जब बारह व्रतों को धारण करता है तो परिग्रह आदि की मर्यादा के अन्तर्गत हो जाने से अभूतपूर्व शान्ति का अनुभव करने लगता है । उसकी असीम कामनाएँ सीमित हो जाती हैं, अनियन्त्रित मन नियन्त्रित हो जाता है, बिना किसी लगाम के स्वच्छन्द विचरण करने वाली इन्द्रियां संयत हो जाती हैं । उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो माथे पर का बोझा उतर गया है ।
यदि शासन यह नियम बना दे कि किसी भी मजदूर से बीस सेर से अधिक बोझ न उठवाया जाय तो मजदूरों को प्रसन्नता होगी । मजदूर के सिर की गठरी अगर मालिक रखले तो भी उसे प्रसन्नता का अनुभव होगा | भार हल्का होने से प्रसन्नता होती है, शान्ति मिलती है, यह अनुभव सिद्ध तथ्य है ।
भगवान महावीर कहते है-"पाप की गठरी को उतार फेंको तो तुम्हें शान्ति मिलेगी । पूरी नहीं उतार सकते तो उसे हल्की ही करलो | यह शान्ति प्राप्त करने का उपाय है।" मगर संसारी जीव की बुद्धि विपरीत दिशा में चलती है । वह भार लादने का कुछ ऐसा अभ्यासी हो गया है कि भारहीन दशा के सुख की कल्पना ही. उसके मन में उदित नहीं हो पाती । परिणामस्वरूप वह जिस भारयुक्त स्थिति में है उसी में मगन रहना चाहता है। किन्तु जो भारहीन या परिमित भारवाली दशा को अंगीकार कर लेते हैं वे अपूर्व शान्ति अनुभव करने लगते हैं । उनका मन निराकुल हो जाता है।
जिसका मानस मूढ़ बन गया है वह भार को भार नहीं समझ पाता और भारहीन दशा में आने से झिझकता है । मगर समय-समय पर पापों की गठरी को इधर-उधर रखकर मनुष्य को शान्ति प्राप्त करनी चाहिए।