Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 527
________________ 519 • आध्यात्मिक आलोक प्रयत्न करना भूल पर भूल करना है । ऐसा करने वाले के सुधार की संभावना बहुत कम होती है । अतएव प्रत्येक समझदार व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह खूब सोच-समझकर ही कोई. कार्य करे और भूल न होने दे तथापि कदाचित् भूल हो जाय तो उसे स्वीकार करने और सुधारने में आनाकानी न करे । भूल को स्वीकार करना दुर्बलता का नहीं बलवान होने का लक्षण है । भगवान महावीर का कथन है कि अपनी भूल को गुरु के समक्ष निश्छल भाव से निवेदन कर देने वाला ही आराधक होता है। ऐसे साधक की साधना ही सफल होती है । अपनी भूल को छिपाना ऐसा ही है जैसे शरीर में उत्पन्न हुए फोड़े को छिपाना । फोड़े को छिपाने से वह बढ़ जाता है, उसमें जहर उत्पन्न हो जाता है और अन्त में वह प्राणों को भी ले बैठता है । उसे उत्पन्न होते ही चिकित्सक को दिखला देना बुद्धिमत्ता है। इसी प्रकार जो भूल हो गई है, कोई दुष्कृत्य हो गया है, उसे गुरुजन के सामने प्रकट न करना अपने साधना-जीवन को विषाक्त बनाना है।। मुनि स्थूलभद्र महान् साधक थे। उन्होंने अपनी भूल को स्वीकार करने में तनिक भी आनाकानी नहीं की । संघ ने भी उनकी सिफारिश की । संघ ने कहा-एक बार की चूक के कारण ज्ञान देने का कार्य बन्द नहीं होना चाहिए । मुनिमंडल ने आचार्य के चरणों में प्रार्थना की-भगवन् ! महामुनि स्थूलभद्र से स्खलना हो गई है । उसकी हम अनुमोदना नहीं करते, किन्तु चलने वाले से स्खलना हो ही जाती है । उसका परिमार्जन किया जाय । भगवान महावीर रूपी हिमाचल से प्रवाहित होता चला आने वाला श्रुत-गंगा का यह परमपावन प्रवाह आपके साथ समाप्त नहीं हो जाना चाहिए । मुनि स्थूलभद्र को आप अपनी ज्ञाननिधि अवश्य दीजिए । वे संघ के प्रतिनिधि हैं, अतएव स्थूलभद्र को ज्ञान देना साधारण व्यक्ति को ज्ञान देना नहीं है, वरन् संघ को ज्ञान देना है । अनुग्रह करके उनकी एक भूल को क्षमा की आंखों से देखिए और उन्हें चौदह पूर्वो का ज्ञान अवश्य दीजिए।" आचार्य भद्रबाहु महान थे किन्तु संघ को वे सर्वोपरि मानते थे। जिन शासन में संघ का स्थान बहुत ऊंचा है। अतएव संघ के आग्रह को अस्वीकार करने की कोई गुंजाइश न थी । उधर भद्रबाहु के मन में असन्तोष था । वे सोचते थे कि काल के प्रभाव से मुनियों के मन में भी उतनी सबलता नहीं रहने वाली है । अतएव यह ज्ञान उनके लिए भी हानिकारक ही सिद्ध होगा । इस प्रकार एक ओर संघ का आग्रह और दूसरी और अन्तःकरण का आदेश था । आचार्य दुविधा में पड़ गए । सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने मध्यम मार्ग ग्रहण किया । अपना निर्णय घोषित कर दिया कि अवशेष श्रुत का ज्ञान देंगे किन्तु सूत्र रूप में ही वह ज्ञान दिया जाएगा, अर्थ रूप में नहीं। इस निर्णय को सबने मान्य किया ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599