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आध्यात्मिक आलोक सिद्धसेन यह उत्तर सुन कर चौंक उठे । उन्होंने सोचा-"मेरी भूल मेरे गुरुजी के सिवाय और कौन बतला सकता है । हो न हो, भारवाहक के रूप में ये मेरे गुरुजी ही हैं।"
___ सचमुच वे सिद्धसेन के गुरु ही थे । उन्होंने प्रकट होकर उन्हें उपदेश दिया-"हम साधुओं का यह कर्त्तव्य नहीं है कि पालकी की सवारी करें और विलासमय जीवन व्यतीत करें । जिसे ऐसा जीवन बिताना है वह साधु का वेष धारण करके साधुता की महिमा को क्यों मलिन करे ?"
गुरु का उपदेश सुनते ही सिद्धसेन प्रतिबुद्ध हो गए । विद्वान को इशारा ही पर्याप्त होता है । ज्ञानवान पुरुष कर्मोदय से कदाचित् गड़बड़ा जाय तो भी ज्ञान की लगाम रहने से शीघ्र सुधर जाता है । इसी कारण ज्ञान की विशेष महिमा है । सूर्य के प्रखर आलोक में जिसे सन्मार्ग दृष्टिगोचर हो रहा हो, वह कुपथ में जाकर भी शीघ्र लौट आता है, परन्तु अमावस्या की घोर अन्धकारमयी रात्रि में, सुपथ पर आना चाहकर भी आना कठिन होता है । यही बात ज्ञानी और अज्ञानी के विषय में समझनी चाहिए | अज्ञान मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है । अज्ञान के कारण मानव अपना शारीरिक और कौटुम्बिक दुःख बढ़ा लेता है । मगर ज्ञान भी वही श्रेयस्कर होता है जो सम्यक् श्रद्धा से युक्त होता है । वह ज्ञान, जो श्रद्धा का रूप धारण नहीं करता, टिक नहीं सकता । कदाचित् टिका रहे तो भी विशेष उपयोगी नहीं होता। कभी-कभी तो श्रद्धाहीन ज्ञान अज्ञान से भी अधिक अहितकर सिद्ध होता है । इसी दृष्टि से कहा जाता है कि कज्ञान से अज्ञान भला । अज्ञानी अपना ही अहित करता है परन्तु श्रद्धाहीन कुज्ञानी अपने कुतर्कों के बल से सैकड़ों, हजारों और लाखों को गलत राह पर ले जा कर उनका अहित कर सकता है । धर्म के नाम पर नाना प्रकार के मिथ्या मतों के जो प्रवर्तक हुए हैं, वे इसी श्रेणी के थे, जिन्होंने अज्ञ जनों को कुमार्ग पर प्रेरित किया । अतएव वही ज्ञान कल्याणकारी है जो सम्यक् श्रद्धा से युक्त होता है । श्रद्धासम्पन्न ज्ञान की महिमा अपार है मगर उसका पूरा लाभ तभी प्राप्त होता है जब ज्ञान के अनुसार आचरण भी किया जाय । चारित्र गुण के विकास के अभाव में ज्ञान सफल नहीं होता ।
जो मनुष्य ज्ञानोपासना में निरत रहता है, वह अपने संस्कारों में मानो अमृत का सिंचन करता है। अपनी भावी पीढ़ियों के सुसंस्कारों का बीजारोपण करता है । उसका इस लोक और परलोक में परम कल्याण होता है।