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[७८ ] विराट जैन दर्शन
आचारांग सूत्र में अत्यन्त गम्भीरता और स्पष्टता के साथ साधक की जीवनचर्या का चित्रण किया गया है। उसमें आन्तरिक और बाय दोनों प्रकार की चर्चाएँ अत्यन्त भावपूर्ण शैली में निरूपित की गई हैं । पहले बतलाया जा चुका है कि सदाचार का मूल आधार अहिंसा है । अहिंसा आचार का प्राणतत्व है । जहां अहिंसा है वहां सदाचार है और जहां अहिंसा नहीं वहां सदाचार नहीं।
आचारांग में दर्शाया गया है कि जीवों के प्रति अमैत्री भाव तथा अनात्म बुद्धि आत्मा को भारी बनाने वाली चीजें हैं । हिंसक जब अन्य जीवों का हनन करता है तो अपनी भी हिंसा करता है । पर हिंसा के निमित्त से आत्महिंसा अवश्य होती है। अगर आप गहराई से सोचेंगे तो समझ जायेंगे ।
भगवान महावीर ने कहा है-“हे मानव । संसार के सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है, सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है । अतएव किसी जीव पर कुठाराघात करना अपने ही ऊपर कुठाराघात करना है। अपनी आत्मा में कषाय का भाव जागृत करने से बड़ी आत्महिंसा क्या हो सकती है ? अतएव सभी प्राणियों को आत्मवत् समझना चाहिये ।"
___ संसार के विविध व्यापार एवं आरम्भ समारम्भ करने वाला पुरी तरह हिंसा से नहीं बच सकता, तथापि दृष्टि को शुद्ध रखना चाहिए । दृष्टि को शुद्ध रखने का आशय यह है कि पाप को पाप समझना चाहिए-हिंसा को हिंसा मानना चाहिए और उससे बचने की भावना रखनी चाहिए।
आज की स्थिति में कोई विरला ही होगा जिसके मस्तक पर ऋण का भार न हो । यद्यपि ऋण के भार को कोई अच्छा नहीं समझता, फिर भी परिस्थिति विवश करती है और ऋण लेना पड़ता है । अगर कोई ऋण को बुरा नहीं समझता तो