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आध्यात्मिक आलोक
527 सिद्धसेन एक बार वृद्धवादी के पास पहुंचे। उन्होंने कहा-मैं उपदेश सुनने नहीं, वाद करने के लिए आया हूँ | आचार्य वृद्धवादी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा और अध्ययन करके कहा-"वाद करना स्वीकार है, परन्तु मध्यस्थ चाहिए जो वाद के परिणाम ( जय-पराजय ) का निर्णय करे ।"
जंगल में दोनों विद्वानों की मुलाकात हुई थी । वहां इन दो महारथियों के वाद का निर्णय करने योग्य मध्यस्थ विद्वान कहां मिलता ? आखिर एक ग्वाला मिल गया और उसे ही निर्णायक बनाया गया । व्याकरण, ज्योतिष, वेदान्त, द्वैताद्वैत की बातें चली । वृद्धवादी अतिशय विद्वान होने के साथ अत्यन्त लोक व्यवहार निपुण भी थे । उन्होंने लोकभाषा में संगीत सुनाया और सभी उपस्थित ग्वाले प्रसन्न हो गए । निर्णायक ग्वाले को भी प्रसन्नता हुई । उसने वाद का निर्णय कर दिया-आचार्य वृद्धवादी विजयी हुए।
भड़ोंच की राजसभा में वृद्धवादी ने सिद्धसेन को पुनः पराजित किया । सिद्धसेन वृद्धवादी के शिष्य बन गए।
सिद्धसेन अपने समय के प्रभावशाली विद्वान थे । विक्रमादित्य ने उन्हें अपना राजपुरोहित बनाया । सिद्धसेन की विद्वता से सन्तुष्ट होकर विक्रमादित्य ने उनसे यथेष्ट वर मांगने को कहा । मगर त्यागी सिद्धसेन को अपने लिए कुछ मांगना नहीं था। उन्हें कोई अभिलाषा नहीं थी । अतएव उन्होंने प्रजा को ऋणमुक्त करने का वर मांगा ।
राजपुरोहित होने के नाते सिद्धसेन पालकी में आने जाने लगे । वृद्धवादी को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने सिद्धसेन को सही राह पर लाने का विचार किया। राजसी भोग भोगना'साधु के लिए उचित नहीं है । इससे संयम दुषित हो जाता है। एक दिन वृद्धवादी छिपे रूप में भारवाहक के रूप में वहां पहुँचे । जब सिद्धसेन पालकी में सवार हुए तो वृद्धवादी भी पालकी के उठाने वालों में सम्मिलित हो गए। सिद्धसेन उन्हें पहचान नहीं सके, मगर उनकी वृद्धावस्था देख कर सहानुभूति प्रकट करते हुए बोले ।
भूरिभार भराक्रान्तः स्कन्धः किं बाधति तव ? अर्थात् अधिक भार के कारण क्या कन्धा दुःख रहा है ? सिद्धसेन के भाषा प्रयोग में व्याकरण सम्बन्धी एक भूल थी । वृद्धवादी को वह बुरी तरह चुभी और उन्होंने चट उत्तर दिया-"भार के कारण कन्धा उतना नहीं दुःख रहा जितना 'बाधते' के बदले तुम्हारा 'बाधति' प्रयोग हृदय में दुःख रहा है।"