Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 542
________________ 534 आध्यात्मिक आलोक वनस्पतिकायिक जीवों को समझ पाया है, चार प्रकार के शेष स्थावर-जीवों को समझना अभी शेष है। परमाणु आदि अनेक जड़ पदार्थों के विषय में भी जैन साहित्य में ऐसी प्ररूपणाएँ उपलब्ध हैं जिन्हें आज वैज्ञानिक मान्यताओं से भी आगे की कहा जा सकता है। किन्तु इसके सम्बन्ध में यहां विवेचन करना प्रासंगिक नहीं। हाँ, तो जैनागम की दृष्टि से जीवों का दायरा बहुत विशाल है । उन सब के प्रति मैत्री भावना रखने का जैनागम में विधान किया गया है । जिसकी मैत्री की परिधि प्राणि मात्र हो उसमें संकीर्णता नहीं आ सकती । चाहे कोई निकटवर्ती हो अथवा दूरवर्ती सभी को अहित से बचाने की बात सोचना है । उसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना है । किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं समझना चाहिए कि किसी प्रकार के अनुचित साम्य को प्रश्रय दिया जाय । गुड़ और गोबर को एक-सा समझना समदर्शित्व नहीं है । जिनमें जो वास्तविक अन्तर हो, उसे तो स्वीकार करना ही चाहिए, मगर उस अन्तर के कारण राग-द्वेष नहीं करना चाहिए । विभिन्न मनुष्यों में गुणधर्म के विकास की भिन्नता होती है, समभाव का यह तकाज़ा नहीं है कि उस वास्तविक भिन्नता को अस्वीकार कर दिया जाय । क्षयोपशम के भेद से प्राणियों में ज्ञान की भिन्नता होती है । किसी में मिथ्याज्ञान और किसी में सम्यग्ज्ञान होता है । कोई सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है, कोई नहीं कर पाता । इस तथ्य को स्वीकार करना ही उचित है । सब औषधों को समान समझ कर किसी भी रोग में किसी भी औषध का प्रयोग करने वाला बुद्धिमान नहीं गिना जाएगा । तात्पर्य यह है कि समभाव वही प्रशस्त है जो विवेकयुक्त हो । विवेकहीन समभाव की दृष्टि गलत दृष्टि है । वृद्धता के नाते सेवनीय दृष्टि से एक साधारण वृद्ध में और वृद्ध माता-पिता में अन्तर नहीं है, परन्तु उपकार की दृष्टि से अन्तर है । माता-पिता का जो महान् उपकार है उसके प्रति कृतज्ञता का विशिष्ट भाव रहता ही है । इसे रागद्वेष का रूप नहीं कहा जा सकता । यही बात अपने वन्दनीय देव और अन्य देवों के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए । दूसरों के प्रति द्वेष न रखते हुए अपने आराध्य देव के प्रति पूर्ण निष्ठा तथा श्रद्धा भक्ति रखी जा सकती है । आनन्द श्रावक ने इन सब बातों की जानकारी प्राप्त की । किन अपवादों से छूट रखनी है, यह भी उसने समझ लिया । साधु जगत् से निरपेक्ष होता है । किसी जाति, ग्राम या कुल के साथ उसका विशिष्ट सम्बन्ध नहीं रह जाता | साधना ही उसके सामने सब कुछ है । मगर गृहस्थ का मार्ग सापेक्ष है । उसे घर, परिवार, जाति, समाज आदि की अपेक्षा

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