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आध्यात्मिक आलोक उसने जल की मर्यादा करली थी । अदत्तादान का ऐसा त्यागी था कि दूसरे के दिये बिना पानी भी ग्रहण नहीं करता था ।
एक बार वह कहीं जा रहा था । सभी शिष्य उसके साथ थे । रास्ते में प्यास लगी । मार्ग में नदी भी मिली किन्तु जल ग्रहण करने की अनुज्ञा देने वाला कोई नहीं था । प्यास के मारे कंठ सूख गया, प्राण जाने का अवसर आ पहुँचा, फिर भी अदत्त जल ग्रहण नहीं किया । वह दुर्बल मनोवृत्ति का नहीं था । यद्यपि कहा जाता है 'आपात्काले मर्यादा नास्ति' अर्थात् विपदा आने पर मर्यादा भंग कर दी जाती है, परन्तु उसने इस छूट का लाभ नहीं लिया । अन्त में अनशन धारण करके समाधिमरणपूर्वक प्राण त्याग दिये, किन्तु प्रण का परित्याग नहीं किया । ऐसी दृढ़ मनोवृत्ति होनी चाहिए साधक की।
साधना यदि देशविरति की है और उसे सर्वविरति की मानी जाय तो यह दृष्टिदोष है । जो ज्ञानी हो और आरम्भ तथा परिग्रह से विरत हो उसे गुरु बनाना चाहिए | साधना के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए साधक के हृदय में श्रद्धा की दृढ़ता तो चाहिए ही, गुरु का पथ-प्रदर्शन भी आवश्यक है । गुरु के अभाव में अनेक प्रकार की भ्रमणाएँ घर कर सकती हैं जिनसे साधना अवरुद्ध हो जाती है और कभी-कभी विपरीत दिशा पकड़ लेती है।
जो व्यक्ति आनन्द की तरह व्रतों को ग्रहण करता है, उसकी मानसिक दुर्बलता दूर हो जाती है और वस्तु के सही रूप को समझने की कमजोरी भी निकल जाती है।
जैन सिद्धान्त की दृष्टि अत्यन्त व्यापक है । उसके उपदेष्टाओं की दृष्टि दिव्य थी, लोकोत्तर थी । अतएव सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रह सके । उन्होंने अपने अनुयायियों को 'सत्त्वेषु मैत्रीम्' अर्थात् प्रत्येक प्राणी पर मैत्रीभाव रखने का आदेश दिया है और प्राणियों में त्रस तथा स्थावर जीवों की गणना की है । स्थावर जीवों में पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक आदि वे जीव भी परिगणित हैं जिन्हें अन्य धर्मों के उपदेष्टा अपनी स्थूल दृष्टि के कारण जीव ही नहीं समझ सके । विज्ञान का आज बहुत विकास हो चुका है, मगर जहां तक प्राणि शास्त्र का सम्बन्ध है, जैन दर्शन आज के तथाकथित विज्ञान से आज भी बहुत आगे है । जैन महर्षि अपनी दिव्य दृष्टि के कारण जिस गहराई तक पहुँचे हुए हैं, विज्ञान को वहाँ तक पहुँचने में अगर कुछ शताब्दियां और लग जाएँ तो भी आश्चर्य की बात नहीं । अभी तक स्थावर जीवों में से यह विज्ञान सिर्फ