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आध्यात्मिक आलोक आध्यात्मिक संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे और उसमें अपावनता का सम्मिश्रण न होने पावे जिससे मानव सहज ही जीवन के उच्च आदर्शों तक पहुँच सके।
संभूतिविजय का प्रयास था कि शास्त्रधारी सैनिकों की शक्ति कम न होने पावे । उनका प्रयास बहुत अंशों में सफल हुआ । सर्वांश में नहीं । स्थूलभद्रजी . की स्खलना ने उसमें बाधा डाल दी । संघ के अधिक आग्रह पर शेष चार पूर्वो को सूत्र रूप में देना ही उन्होंने स्वीकार किया । स्थूलभद्र स्वयं इस विषय में कुछ अधिक नहीं कह सकते थे। उनकी स्खलना इतना विषम रूप धारण कर लेगी, इसकी उन्हें लेश मात्र भी कल्पना नहीं थी । इस विषम रूप को सामने आया देखकर उन्हें हार्दिक वेदना हुई, पश्चात्ताप हुआ । ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि ज्ञानवान् साधक से जब भूल हो जाती है तो वह जल्दी उसे भूल नहीं सकता।
जैन शास्त्र में जाति शब्द का वह अर्थ नहीं लिया जाता जो आजकल लोक प्रचलित है । प्रचलित अर्थ तो अर्वाचीन है । शास्त्रों में मातृपक्ष को जाति और पितृ पक्ष को कुल कहा गया है
मातृपक्षो जातिः, पितृ पक्षः कुलम् ।। - जिसकी सात पीढ़ियां निर्मल रही हों वह कुलीन कहलाता था । जिस पुत्र का मातृ वंश और पितृ वंश निर्मल होगा वह कुलीन और जातिमान् कहलाएगा । किसी बालक में कोई दुर्गुण दिख पड़े तो उसके पितृ वंश के इतिहास की खोज करनी चाहिए । पता चल जाएगा कि उसके किसी पूर्वज में यह दोष अवश्य रहा होगा ।
महागंगा की धारा को मोड़ना जैसे शक्य नहीं, उसी प्रकार भद्रबाहु की विचारधारा को मोड़ना भी शक्य नहीं था । उन्होंने स्थूलभद्र को चौदह पूर्व सिखा दिये किन्तु उन्हें यह आदेश भी दे दिया कि आगे चौदह पूर्व किसी को न सिखाना। ?
सिद्धसेन एक बड़े विद्वान व्यक्ति थे । उनका कहना था कि मेरे मुकाबिले का कोई विद्वान् मिले तो उसके साथ शास्त्रार्थ करूं; किन्तु कोई उनका सामना करने को तैयार नहीं होता था । उनकी विद्वता की दुंदुभि बजने लगी । कहते हैं-उन्होंने अपने पेट पर पट्टा बांध रखा था । कोई पट्टा बांधने का कारण पूछता तो वे कहते-“पट्टा न बाधूं तो विद्या की अधिकता के कारण पेट फट जाएगा ।"
उसी समय वृद्धवादी नामक एक जैन विद्वान थे । किसी ने सिद्धसेन से पूछा-"क्या आपने कभी वृद्धवादी से चर्चा की है ?" सिद्धसेन बोले-"बुढ़े बैल की मेरे सामने क्या बिसात है । फिर भी देख लूंगा ।"