________________
[७७ ] सुधासिंचन
धर्म और धर्म साधना के सम्बन्ध में साधारण लोगों में अनेक प्रकार की भ्रमपूर्ण धारणाएँ फैली हुई हैं । बहुतों की समझ है कि धर्मस्थान में जाकर अपनी परम्परा के अनुकूल अमुक विधि-विधान या क्रिया कर लेने मात्र से धर्म साधना की इति श्री हो जाती है । अधिकांश लोग ऐसा ही करते हैं और अपने मन को सन्तुष्ट कर लेते हैं । इनकी समझ के अनुसार धर्मस्थान से बाहर के व्यवहार के साथ धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं। गार्हस्थिक व्यवहार और व्यापार में धर्म का कोई स्थान नहीं है।
ज्ञानी जनों का कथन है कि इस प्रकार की धारणा बहुत ही भ्रमपूर्ण है। धर्म साधना जीवन के प्रत्येक व्यवहार का विषय है। जिसके चित्त में धर्म की महत्ता समा गई है, जिसके रोम-रोम में धर्म व्याप गया है और जिसने धर्म को परम मंगलकारी समझ लिया है, वह क्षण भर के लिए भी धर्म को विस्मृत नहीं करेगा | उसके समस्त लौकिक कहलाने वाले कार्यों में भी धर्म का पुट रहेगा ही। जब वह व्यापार करेगा तो भाव-ताव करने में असत्य का प्रयोग नहीं करेगा। अबोध बालक को भी ठगने का प्रयत्न नहीं करेगा । अच्छी वस्तु दिखला कर खराब नहीं देगा । किसी भी वस्तु में भेल-सेल नहीं करेगा। कम नापने तोलने में पाप समझेगा । विवाह करेगा तो उसका उद्देश्य भोग-विलास की स्वच्छन्दता प्राप्त करना नहीं होगा वरन् अपने जीवन को मर्यादित करना होगा । पर स्त्रियों को माता-बहिन समझकर बर्ताव करना होगा। इस प्रकार सभी कार्यों में उसका दृष्टिकोण धर्मयुक्त होगा।
ऐसा धार्मिक व्यक्ति धर्मस्थान में अवश्य जाएगा और वहां विशिष्ट साधना भी करेगा, मगर यही सोचेगा कि धर्मस्थान में प्राप्त की हुई प्रेरणा मेरे जीवन-व्यवहार में काम आनी चाहिए। अगर जीवन के व्यवहार अधर्ममय बने रहे तो धर्मस्थान में ली हुई शिक्षा किस काम की ? वह शिक्षा जीवन में ओत-प्रोत हो जानी चाहिए ।