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आध्यात्मिक आलोक आगम के दो रूप होते हैं-सूत्र और अर्थ । सूत्र मूल सामग्री रूप है और अर्थ उससे बनने वाला विविध प्रकार का भोजन । मूल सामग्री से नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ तैयार किये जा सकते हैं | सबल एवं नीरोग व्यक्ति बाफला जैसे गरिष्ठ भोजन को पचा सकता है किन्तु बालक और क्षीणशक्ति व्यक्ति नहीं पचा सकता है। अर्थागम को पचाने के लिए विशेष मनोबल की आवश्यकता होती है । वह न हुआ तो अनेक प्रकार के अनर्थों की संभावना रहती है । अध्येता अगर व्यवहार दृष्टि को निश्चय दृष्टि समझ ले या निश्चयं दृष्टि को व्यवहार दृष्टि समझ ले तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा । उत्सर्ग को अपवाद या अपवाद को उत्सर्ग समझ लेने से भी अनेक प्रकार की भ्रांतियां (भ्रमणाएं) फैल सकती है ।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, इस कथन में सत्यता है, मगर इसका अर्थ यदि यह समझ लिया जाय कि धन, पुत्र, कलत्र आदि के प्रति आसक्ति रखने से भी आत्मा में किसी प्रकार की विकृति नहीं हो सकती तो यह अनर्थ होगा।
स्थानांग सूत्र का प्रथम वाक्य है-'एगे आया ।' यदि इसका आशय वही समझा जाय जैसा कि आत्माद्वैतवादी वेदान्ती कहते हैं, अर्थात् समस्त विश्व में, सभी शरीरों में, एक ही आत्मा है-प्रत्येक शरीर में अलग-अलग आत्मा नहीं है, तो कितना अनर्थ होगा।
आत्मा अजर, अमर, अविनाशी, शुद्ध, बुद्ध एवं सिद्धस्वरूप है, यह निरूपण आपने सुना होगा । पर क्या इसका आशय यह है कि किसी को साधना करने की आवश्यकता नहीं है ?
तात्पर्य यह है कि सूत्र के सही अर्थ को समझने के लिए नयदृष्टि की आवश्यकता होती है। जिन प्रवचन का एक भी वाक्य नयनिरपेक्ष नहीं होता । जिस नय से जो बात कही गई है, उसे उसी नय की अपेक्षा समझना चाहिए । दूसरे नय की दृष्टि को सर्वथा ओझल नहीं कर देना चाहिए । यदि ऐसा हुआ तो घोर अनर्थ होगा । आज जिन शासन में भी अनेक प्रकार के जो वितंडावाद चल पड़ते हैं और विभिन्न प्रकार के साम्प्रदायिक मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं, उसका आधार अपेक्षा, नयदृष्टि या विवक्षाभेद को न समझना ही है । गहराई के साथ नयदृष्टि को न समझने से कलह का बीजारोपण होता है । अतएव निष्पक्षभाव से, शुद्ध बुद्धि से आगम के अर्थ को इस प्रकार समझना चाहिए जिससे लौकिक और पारलौकिक कल्याण हो ।