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आध्यात्मिक आलोक
523 एगम्मि भवग्गहणे समाधि मरणेण जो मइदि जीवो ।
ण हु हिंदि बहुसो, सतह भवे पमोतूण ।।
अर्थात एक भव में जो जीव समाधिमरणपूर्वक शरीर का त्याग करता है वह सात-आठ भवों से अधिक काल तक संसार में भ्रमण नहीं करता ।
संलेखना समाधिमरण की भूमिका तैयार करता है । संलेखना करके साधक भूमिका का निर्माण कर लेता है, आहार का, अठारह प्रकार के पाप का एवं शरीर के प्रति ममता का परित्याग कर देता है । जिस शरीर का बड़े यत्न से पालन-पोषण किया था, सर्दी गर्मी और रोगों से बचाया था, उसके प्रति मन में लेश मात्र भी ममत्व न धारण करते हुए शान्ति और समभाव से, आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसे त्याग देना पण्डितमरण है।
समाधिमरण के पांच दूषण हैं, जिनसे साधक बचता है । वे इस प्रकार हैं
(७) समाधिमरण की साधना अंगीकार करके पुत्र, कलत्र आदि की चिन्ता करना दोष है । इस लोक सम्बन्धी किसी भी प्रकार की आकांक्षा का उदय होने से यह दोष होता है।
(२) परलोक सम्बन्धी कामना करना भी दोष है । मुझे इन्द्र का पद प्राप्त हो जाए, मैं चक्रवर्ती बन जाऊँ, यह अभिलाषा भी इस व्रत को दूषित करती है ।
६) समाधिमरण के समय आदर सम्मान होते देख कर अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना भी दोष है।
__(8) कष्ट से छुटकारा पाने के उद्देश्य से, घबरा कर शीघ्र मरण की इच्छा करना।
(७) अच्छा बिस्तर चाहना, तेल आदि की मालिश करना, विषयों की आकांक्षा करना।
अभिप्राय यह है कि अपने अन्तिम समय में भावना को निर्मल बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी भी प्रकार की विकारयुक्त विचारधारा को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए। पूरी तरह समभाव एवं विरक्तिभाव जागृत करना चाहिए । विवेकशाली व्रती जब साधना के मार्ग में सजग होकर कदम बढ़ाता है तो मरण के समय क्यों असावधानी बरतेगा? व्रती निरन्तर इस प्रकार की भावना में रमण करता
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।