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आध्यात्मिक आलोक ज्ञानी जन मृत्यु को मित्र मानकर उससे भेंट करने के लिए सदा उद्यत रहते . हैं । मृत्यु उनके लिए विषाद का कारण नहीं होती । वे समझते हैं कि मैंने जीवन भर जो पुण्यकर्म किया है, उसका फल तो मृत्यु के माध्यम से ही प्राप्त होना है। तो फिर मृत्यु से भयभीत क्यों होना चाहिए ? शरीर के कारागार से आत्मा को मुक्त कराने वाली मृत्यु भयावह कैसे हो सकती है ? .
मगर अज्ञानी और अधर्मी जन मृत्यु की कल्पना से सिहर उठते हैं । वे समझते हैं कि वर्तमान जीवन में किये हुए पापों का दुष्फल अब भुगतना पड़ेगा ।
तो मृत्यु को और उसके पश्चात् के जीवन को सुन्दर और सुखद बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इस जीवन को उज्ज्वल और पवित्र बनाया जाय, जीवन में . पाप का स्पर्श न होने दिया जाय । जिसने इस प्रकार की सावधानी रखी उसके लिए मृत्यु मंगल है, महोत्सव है, शिव है, सुन्दर है और सुखद है।
भगवान ने आनन्द को मृत्यु के दो भेद बतलाये -
(9) पश्चिम मरण, बालमरण, असमाधिमरण (२) अपश्चिममरण, पण्डितमरण, समाधिमरण।
प्रथम प्रकार के मरण के लिए कला की आवश्यकता नहीं । रेल की पटरी पर सो जाना, विषपान कर लेना, फांसी लगा देना या कुंए में कूद जाना उसके सरल साधन हैं । कषाय-पूर्वक मरना और हाय-हाय करते हुए मरना भी बालमरण है । आत्म-हत्या के रूप में बालमरण की घटनाएँ आजकल बहुत बढ़ गई हैं । सौराष्ट्र प्रान्त में तो ऐसी घटनाएँ इतनी अधिक होती हैं कि वहां के मुख्यमन्त्री के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई हैं । गृह कलह और घोर निराशा आदि इसके कारण होते हैं । पति के विछोह में पत्नी की और पुत्र के वियोग में पिता की मृत्यु होना भी : बालमरण है । भारत में पहले प्रचलित सती प्रथा भी बालमरण का ही भयानक रूप था । इस प्रकार अनेक रूपों में यह बालमरण आज प्रचलित है । यह मरण कलाविहीन मरण है और पाप का कारण है । भगवान् महावीर ने कहा कि मृत्यु को कलात्मक स्वरूप प्रदान करना मानव का सर्वश्रेष्ठ कौशल है, जीवनगत विकारों को . समाप्त करके, जीवन का शोधन करके और माया ममता से अलग होकर जो हँसते-हँसते मरता है, वह जीवन की कला जानता है।
किसी सन्त का शिष्य बड़ा तपस्वी था । तप करते-करते उसका शरीर क्षीण हो गया अतएव उसने समाधिमरण अंगीकार करने का निर्णय किया । गुरु से समाधिमरण की अनुमति मांगी । गुरु ने कहा-अभी समय नहीं आया है । शिष्य पुनः