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आध्यात्मिक आलोक
515 अनादिकाल से आत्मा भाराक्रान्त है । भाराक्रान्त होने से अशान्त है और अशान्ति में उसे सच्चे आनन्द की अनुभूति नहीं हो पाती । महावीर स्वामी ने श्रमणोपासक आनन्द का सच्चा आनन्द-मार्ग प्रदर्शित किया और आनन्द के माध्यम से जगत् के समस्त सन्तप्त प्राणियों को वह मार्ग दिखलाया ।
निसर्ग के नियम को कौन टाल सकता है ? प्रतिदिन सुनहरा प्रभात उदित होता है तो सन्ध्या भी अवश्य आती है । प्रभात हो किन्तु सन्ध्या न आए, यह कदापि संभव नहीं है। प्राणी के जीवन में भी प्रभात और सन्ध्या का आगमन होता है । जन्म प्रभात है तो मरण संध्यावेला है ।
जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः, ध्रुवं जन्म मृतस्य च । जिसने जन्म ग्रहण किया है, उसका मरण अनिवार्य है और जो मरण शरण हुआ है उसका जन्म भी निश्चित है।
पशु-पक्षी और कीट-पतंग की तरह मरना जन्म-मरण के बन्धन को बढ़ाना है। भगवान महावीर ने कहा-"मानव ! तू मरने की कला सीख । मृत्यु जब सत्य है तो उसे शिव और सुन्दर भी बना । उसके विकराल रूप की कल्पना करके तू मृत्यु के नाम से भी थर्रा उठता है, मगर उसके शिव-सुन्दर स्वरूप को क्यों नहीं देखता ?"
कहा जा सकता है कि मृत्यु विनाश है, संहार है, जीवन का अन्त है । उसमें शिवत्व और सौन्दर्य कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि अज्ञानी जीव प्रायः प्रत्येक वस्तु का काला पक्ष ही देखा करते हैं । शुक्ल पक्ष उन्हें दृष्टिगत नहीं होता । मृत्यु यदि विनाश है तो क्या नवजीवन का निर्माण नहीं है ? संहार है तो क्या सृष्टि नहीं है ? जीवन का अन्त है तो क्या नूतन जीवन की आदि नहीं है? क्या मृत्यु के बिना किसी की भेंट नवजीवन से हो सकती है ? ज्ञानी और अज्ञानी की विचारणा में बहुत अन्तर होता है। ज्ञानीजन कहते हैं
कृमिजाल-शताकीर्णे, जर्जर देहपंजरे ।
भिद्यमाने न भेत्तव्यं, यतस्त्वं ज्ञान-विग्रहः ।। हे आत्मन् । सैकड़ों कीड़ों से व्याप्त और जर्जर यह देह रूपी पिंजरा अगर भेद को प्राप्त होता है तो होने दे । इसमें भयभीत होने की क्या बात है । जैसे पक्षी के लिए पिंजरा होता है वैसे ही तेरे लिए यह देह है । यह तेरी असली देह नहीं है । तेरी असली देह तो चेतना है जो तुझसे कदापि पृथक् नहीं हो सकती ।