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आध्यात्मिक आलोक
कोई वस्तु बिगड़ गई है या नहीं, यह परीक्षा करना कठिन नहीं है । बिगाड़ होने पर वस्तु के रूप-रंग, रस, गंध में परिवर्तन हो जाता है । उस परिवर्तन को देखकर उसके कालातिक्रांत होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
. शासन के कानून के अनुसार औषध निर्माताओं को इंजेक्शन आदि औषधों की शीशियों पर उसकी कालिक मर्यादा अंकित करनी पड़ती है और यह जाहिर करना पड़ता है कि यह औषध अमुक तारीख तक ही काम में लाई जा सकती है, उसके बाद नहीं । इसी प्रकार धर्म शासन के अनुसार भोज्य पदार्थों को भी विकृत होने के पश्चात् काम में नहीं लेना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि यदि वस्तु ठीक न हो तथा भावना दूषित हो तो उसके दान से लाभ नहीं होगा । वही दान विशेष लाभप्रद होता है जिसमें चित्त, वित्त और पात्र की अनुकूल स्थिति हो ।
गृहस्थ साधक की भावना सदा दान देने की रहती है । वह चौदह प्रकार की चीजें अतिथियों को देने की इच्छा करता है । इसी को मनोरथ भी कहते हैं । ये वस्तुएं हैं
चार प्रकार का आहार अर्थात्-१) अशन (२) पान () पक्वान्न आदि खाद्य (४) मुखवास आदि स्वाद्य तथा (५) वस्त्र () पात्र (७) कम्बल (८) रजौहरण (9 पीठ चौकी-वाजौठ (१०) पाट (११) सोंठ, लवंग आदि औषधि (१२) भैषज्य बनी हुई दवा (१३) शय्या-मकान और (१४) संस्तारक अर्थात् पराल आदि घास ।
उल्लिखित पदार्थों की दो श्रेणियां हैं-नित्य देने लेने के पदार्थ और किसी · विशेष प्रसंग पर देने लेने योग्य पदार्थ ।
ये सभी वस्तुएं साधुओं को गृहस्थ के घर से ही प्राप्त हो सकती हैं और गृहस्थ के यहां से तभी मिल सकती हैं जब वह स्वयं इनका प्रयोग करता हो । श्रावक का कर्त्तव्य है कि वह साधु की संयमसाधना में सहायक बने । राग के वशीभूत होकर ऐसा कोई कार्य न करे या ऐसी कोई वस्तु देने का प्रयत्न न करे जिससे साधु का संयम खतरे में पड़ता हो । यदि गृहस्थ सभी रंगीन दुशाला ओढ़ने वाले हों तो साधुओं को श्वेत वस्त्र कहां से देंगे? साधु तीन प्रकार के पात्र ही ग्रहण कर सकते हैं-तम्बे के, मिटटी के या काष्ठ के । अभिप्राय यह है कि श्रावक - यदि विवेकशील हों तो साधुओं के व्रत का ठीक तरह से पालन हो सकता है।
(४) मात्सर्य : मत्सरभाव से दान देना भी अतिचार है। मेरे पड़ौसी ने ऐसा दान दिया है, मैं उससे क्या कम हैं ? इस प्रकार ईर्ष्या से प्रेरित होकर भी दान देना उचित नहीं।